दोहा :
निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन ।
परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन ॥ ८ ॥
श्री जानकीजी नेत्रों को अपने चरणों में लगाए हुए हैं (नीचे की ओर देख रही हैं) और मन श्री रामजी के चरण कमलों में लीन है । जानकीजी को दीन (दुःखी) देखकर पवनपुत्र हनुमान् जी बहुत ही दुःखी हुए ॥ ८ ॥
चौपाई :
तरु पल्लव महँ रहा लुकाई । करइ बिचार करौं का भाई ॥
तेहि अवसर रावनु तहँ आवा । संग नारि बहु किएँ बनावा ॥ १ ॥
हनुमान् जी वृक्ष के पत्तों में छिप रहे और विचार करने लगे कि हे भाई! क्या करूँ (इनका दुःख कैसे दूर करूँ)? उसी समय बहुत सी स्त्रियों को साथ लिए सज-धजकर रावण वहाँ आया ॥ १ ॥
बहु बिधि खल सीतहि समुझावा । साम दान भय भेद देखावा ॥
कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी । मंदोदरी आदि सब रानी ॥ २ ॥
उस दुष्ट ने सीताजी को बहुत प्रकार से समझाया । साम, दान, भय और भेद दिखलाया । रावण ने कहा - हे सुमुखि! हे सयानी! सुनो! मंदोदरी आदि सब रानियों को- ॥ २ ॥
तव अनुचरीं करउँ पन मोरा । एक बार बिलोकु मम ओरा ॥
तृन धरि ओट कहति बैदेही । सुमिरि अवधपति परम सनेही ॥ ३ ॥
मैं तुम्हारी दासी बना दूँगा, यह मेरा प्रण है । तुम एक बार मेरी ओर देखो तो सही! अपने परम स्नेही कोसलाधीश श्री रामचंद्रजी का स्मरण करके जानकीजी तिनके की आड़ (परदा) करके कहने लगीं- ॥ ३ ॥
सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा । कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा ॥
अस मन समुझु कहति जानकी । खल सुधि नहिं रघुबीर बान की ॥ ४ ॥
हे दशमुख! सुन, जुगनू के प्रकाश से कभी कमलिनी खिल सकती है? जानकीजी फिर कहती हैं - तू (अपने लिए भी) ऐसा ही मन में समझ ले । रे दुष्ट! तुझे श्री रघुवीर के बाण की खबर नहीं है ॥ ४ ॥
सठ सूनें हरि आनेहि मोही । अधम निलज्ज लाज नहिं तोही ॥ ५ ॥
रे पापी! तू मुझे सूने में हर लाया है । रे अधम! निर्लज्ज! तुझे लज्जा नहीं आती? ॥ ५ ॥
दोहा :
आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान ।
परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन ॥ ९ ॥
अपने को जुगनू के समान और रामचंद्रजी को सूर्य के समान सुनकर और सीताजी के कठोर वचनों को सुनकर रावण तलवार निकालकर बड़े गुस्से में आकर बोला- ॥ ९ ॥
चौपाई :
सीता तैं मम कृत अपमाना । कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना ॥
नाहिं त सपदि मानु मम बानी । सुमुखि होति न त जीवन हानी ॥ १ ॥
सीता! तूने मेरा अपनाम किया है । मैं तेरा सिर इस कठोर कृपाण से काट डालूँगा । नहीं तो (अब भी) जल्दी मेरी बात मान ले । हे सुमुखि! नहीं तो जीवन से हाथ धोना पड़ेगा ॥ १ ॥
स्याम सरोज दाम सम सुंदर । प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर ॥
सो भुज कंठ कि तव असि घोरा । सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा ॥ २ ॥
(सीताजी ने कहा - ) हे दशग्रीव! प्रभु की भुजा जो श्याम कमल की माला के समान सुंदर और हाथी की सूँड के समान (पुष्ट तथा विशाल) है, या तो वह भुजा ही मेरे कंठ में पड़ेगी या तेरी भयानक तलवार ही । रे शठ! सुन, यही मेरा सच्चा प्रण है ॥ २ ॥
चंद्रहास हरु मम परितापं । रघुपति बिरह अनल संजातं ॥
सीतल निसित बहसि बर धारा । कह सीता हरु मम दुख भारा ॥ ३ ॥
सीताजी कहती हैं - हे चंद्रहास (तलवार)! श्री रघुनाथजी के विरह की अग्नि से उत्पन्न मेरी बड़ी भारी जलन को तू हर ले, हे तलवार! तू शीतल, तीव्र और श्रेष्ठ धारा बहाती है (अर्थात् तेरी धारा ठंडी और तेज है), तू मेरे दुःख के बोझ को हर ले ॥ ३ ॥
चौपाई :
सुनत बचन पुनि मारन धावा । मयतनयाँ कहि नीति बुझावा ॥
कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई । सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई ॥ ४ ॥
सीताजी के ये वचन सुनते ही वह मारने दौड़ा । तब मय दानव की पुत्री मन्दोदरी ने नीति कहकर उसे समझाया । तब रावण ने सब दासियों को बुलाकर कहा कि जाकर सीता को बहुत प्रकार से भय दिखलाओ ॥ ४ ॥
मास दिवस महुँ कहा न माना । तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना ॥ ५ ॥
यदि महीने भर में यह कहा न माने तो मैं इसे तलवार निकालकर मार डालूँगा ॥ ५ ॥
दोहा :
भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बृंद ।
सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मंद ॥ १० ॥
(यों कहकर) रावण घर चला गया । यहाँ राक्षसियों के समूह बहुत से बुरे रूप धरकर सीताजी को भय दिखलाने लगे ॥ १० ॥
चौपाई :
त्रिजटा नाम राच्छसी एका । राम चरन रति निपुन बिबेका ॥
सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना । सीतहि सेइ करहु हित अपना ॥ १ ॥
उनमें एक त्रिजटा नाम की राक्षसी थी । उसकी श्री रामचंद्रजी के चरणों में प्रीति थी और वह विवेक (ज्ञान) में निपुण थी । उसने सबों को बुलाकर अपना स्वप्न सुनाया और कहा - सीताजी की सेवा करके अपना कल्याण कर लो ॥ १ ॥
सपनें बानर लंका जारी । जातुधान सेना सब मारी ॥
खर आरूढ़ नगन दससीसा । मुंडित सिर खंडित भुज बीसा ॥ २ ॥
स्वप्न (मैंने देखा कि) एक बंदर ने लंका जला दी । राक्षसों की सारी सेना मार डाली गई । रावण नंगा है और गदहे पर सवार है । उसके सिर मुँडे हुए हैं, बीसों भुजाएँ कटी हुई हैं ॥ २ ॥
एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई । लंका मनहुँ बिभीषन पाई ॥
नगर फिरी रघुबीर दोहाई । तब प्रभु सीता बोलि पठाई ॥ ३ ॥
इस प्रकार से वह दक्षिण (यमपुरी की) दिशा को जा रहा है और मानो लंका विभीषण ने पाई है । नगर में श्री रामचंद्रजी की दुहाई फिर गई । तब प्रभु ने सीताजी को बुला भेजा ॥ ३ ॥
यह सपना मैं कहउँ पुकारी । होइहि सत्य गएँ दिन चारी ॥
तासु बचन सुनि ते सब डरीं । जनकसुता के चरनन्हि परीं ॥ ४ ॥
मैं पुकारकर (निश्चय के साथ) कहती हूँ कि यह स्वप्न चार (कुछ ही) दिनों बाद सत्य होकर रहेगा । उसके वचन सुनकर वे सब राक्षसियाँ डर गईं और जानकीजी के चरणों पर गिर पड़ीं ॥ ४ ॥