चौपाई :

देवन्ह प्रभुहि पयादें देखा । उपजा उर अति छोभ बिसेषा ॥
सुरपति निज रथ तुरत पठावा । हरष सहित मातलि लै आवा ॥ १ ॥

देवताओं ने प्रभु को पैदल (बिना सवारी के युद्ध करते) देखा, तो उनके हृदय में बड़ा भारी क्षोभ (दुःख) उत्पन्न हुआ । (फिर क्या था) इंद्र ने तुरंत अपना रथ भेज दिया । (उसका सारथी) मातलि हर्ष के साथ उसे ले आया ॥ १ ॥

तेज पुंज रथ दिब्य अनूपा । हरषि चढ़े कोसलपुर भूपा ॥
चंचल तुरग मनोहर चारी । अजर अमर मन सम गतिकारी ॥ २ ॥

उस दिव्य अनुपम और तेज के पुंज (तेजोमय) रथ पर कोसलपुरी के राजा श्री रामचंद्रजी हर्षित होकर चढ़े । उसमें चार चंचल, मनोहर, अजर, अमर और मन की गति के समान शीघ्र चलने वाले (देवलोक के) घोड़े जुते थे ॥ २ ॥

रथारूढ़ रघुनाथहि देखी । धाए कपि बलु पाइ बिसेषी ॥
सही न जाइ कपिन्ह कै मारी । तब रावन माया बिस्तारी ॥ ३ ॥

श्री रघुनाथजी को रथ पर चढ़े देखकर वानर विशेष बल पाकर दौड़े । वानरों की मार सही नहीं जाती । तब रावण ने माया फैलाई ॥ ३ ॥

सो माया रघुबीरहि बाँची । लछिमन कपिन्ह सो मानी साँची ॥
देखी कपिन्ह निसाचर अनी । अनुज सहित बहु कोसलधनी ॥ ४ ॥

एक श्री रघुवीर के ही वह माया नहीं लगी । सब वानरों ने और लक्ष्मणजी ने भी उस माया को सच मान लिया । वानरों ने राक्षसी सेना में भाई लक्ष्मणजी सहित बहुत से रामों को देखा ॥ ४ ॥

छंद :

बहु राम लछिमन देखि मर्कट भालु मन अति अपडरे ।
जनु चित्र लिखित समेत लछिमन जहँ सो तहँ चितवहिं खरे ॥
निज सेन चकित बिलोकि हँसि सर चाप सजि कोसलधनी ।
माया हरी हरि निमिष महुँ हरषी सकल मर्कट अनी ॥

बहुत से राम-लक्ष्मण देखकर वानर-भालू मन में मिथ्या डर से बहुत ही डर गए । लक्ष्मणजी सहित वे मानो चित्र लिखे से जहाँ के तहाँ खड़े देखने लगे । अपनी सेना को आश्चर्यचकित देखकर कोसलपति भगवान् हरि (दुःखों के हरने वाले श्री रामजी) ने हँसकर धनुष पर बाण चढ़ाकर, पल भर में सारी माया हर ली । वानरों की सारी सेना हर्षित हो गई ।

दोहा :

बहुरि राम सब तन चितइ बोले बचन गँभीर ।
द्वंदजुद्ध देखहु सकल श्रमित भए अति बीर ॥ ८९ ॥

फिर श्री रामजी सबकी ओर देखकर गंभीर वचन बोले - हे वीरों! तुम सब बहुत ही थक गए हो, इसलिए अब (मेरा और रावण का) द्वंद्व युद्ध देखो ॥ ८९ ॥

चौपाई :

अस कहि रथ रघुनाथ चलावा । बिप्र चरन पंकज सिरु नावा ॥
तब लंकेस क्रोध उर छावा । गर्जत तर्जत सम्मुख धावा ॥ १ ॥

ऐसा कहकर श्री रघुनाथजी ने ब्राह्मणों के चरणकमलों में सिर नवाया और फिर रथ चलाया । तब रावण के हृदय में क्रोध छा गया और वह गरजता तथा ललकारता हुआ सामने दौड़ा ॥ १ ॥

जीतेहु जे भट संजुग माहीं । सुनु तापस मैं तिन्ह सम नाहीं ॥
रावन नाम जगत जस जाना । लोकप जाकें बंदीखाना ॥ २ ॥

(उसने कहा - ) अरे तपस्वी! सुनो, तुमने युद्ध में जिन योद्धाओं को जीता है, मैं उनके समान नहीं हूँ । मेरा नाम रावण है, मेरा यश सारा जगत् जानता है, लोकपाल तक जिसके कैद खाने में पड़े हैं ॥ २ ॥

खर दूषन बिराध तुम्ह मारा । बधेहु ब्याध इव बालि बिचारा ॥
निसिचर निकर सुभट संघारेहु । कुंभकरन घननादहि मारेहु ॥ ३ ॥

तुमने खर, दूषण और विराध को मारा! बेचारे बालि का व्याध की तरह वध किया । बड़े-बड़े राक्षस योद्धाओं के समूह का संहार किया और कुंभकर्ण तथा मेघनाद को भी मारा ॥ ३ ॥

आजु बयरु सबु लेउँ निबाही । जौं रन भूप भाजि नहिं जाही ॥
आजु करउँ खलु काल हवाले । परेहु कठिन रावन के पाले ॥ ४ ॥

अरे राजा! यदि तुम रण से भाग न गए तो आज मैं (वह) सारा वैर निकाल लूँगा । आज मैं तुम्हें निश्चय ही काल के हवाले कर दूँगा । तुम कठिन रावण के पाले पड़े हो ॥ ४ ॥

सुनि दुर्बचन कालबस जाना । बिहँसि बचन कह कृपानिधाना ॥
सत्य सत्य सब तव प्रभुताई । जल्पसि जनि देखाउ मनुसाई ॥ ५ ॥

रावण के दुर्वचन सुनकर और उसे कालवश जान कृपानिधान श्री रामजी ने हँसकर यह वचन कहा - तुम्हारी सारी प्रभुता, जैसा तुम कहते हो, बिल्कुल सच है । पर अब व्यर्थ बकवाद न करो, अपना पुरुषार्थ दिखलाओ ॥ ५ ॥

छंद :

जनि जल्पना करि सुजसु नासहि नीति सुनहि करहि छमा ।
संसार महँ पूरुष त्रिबिध पाटल रसाल पनस समा ॥
एक सुमनप्रद एक सुमन फल एक फलइ केवल लागहीं ।
एक कहहिं कहहिं करहिं अपर एक करहिं कहत न बागहीं ॥

व्यर्थ बकवाद करके अपने सुंदर यश का नाश न करो । क्षमा करना, तुम्हें नीति सुनाता हूँ, सुनो! संसार में तीन प्रकार के पुरुष होते हैं - पाटल (गुलाब), आम और कटहल के समान । एक (पाटल) फूल देते हैं, एक (आम) फूल और फल दोनों देते हैं एक (कटहल) में केवल फल ही लगते हैं । इसी प्रकार (पुरुषों में) एक कहते हैं (करते नहीं), दूसरे कहते और करते भी हैं और एक (तीसरे) केवल करते हैं, पर वाणी से कहते नहीं ॥

दोहा :

राम बचन सुनि बिहँसा मोहि सिखावत ग्यान ।
बयरु करत नहिं तब डरे अब लागे प्रिय प्रान ॥ ९० ॥

श्री रामजी के वचन सुनकर वह खूब हँसा (और बोला-) मुझे ज्ञान सिखाते हो? उस समय वैर करते तो नहीं डरे, अब प्राण प्यारे लग रहे हैं ॥ ९० ॥

चौपाई :

कहि दुर्बचन क्रुद्ध दसकंधर । कुलिस समान लाग छाँड़ै सर ॥ ॥
नानाकार सिलीमुख धाए । दिसि अरु बिदिसि गगन महि छाए ॥ १ ॥

दुर्वचन कहकर रावण क्रुद्ध होकर वज्र के समान बाण छोड़ने लगा । अनेकों आकार के बाण दौड़े और दिशा, विदिशा तथा आकाश और पृथ्वी में, सब जगह छा गए ॥ १ ॥

पावक सर छाँड़ेउ रघुबीरा । छन महुँ जरे निसाचर तीरा ॥
छाड़िसि तीब्र सक्ति खिसिआई । बान संग प्रभु फेरि चलाई ॥ २ ॥

श्री रघुवीर ने अग्निबाण छोड़ा, (जिससे) रावण के सब बाण क्षणभर में भस्म हो गए । तब उसने खिसियाकर तीक्ष्ण शक्ति छोड़ी, (किन्तु) श्री रामचंद्रजी ने उसको बाण के साथ वापस भेज दिया ॥ २ ॥

कोटिन्ह चक्र त्रिसूल पबारै । बिनु प्रयास प्रभु काटि निवारै ॥
निफल होहिं रावन सर कैसें । खल के सकल मनोरथ जैसें ॥ ३ ॥

वह करोड़ों चक्र और त्रिशूल चलाता है, परन्तु प्रभु उन्हें बिना ही परिश्रम काटकर हटा देते हैं । रावण के बाण किस प्रकार निष्फल होते हैं, जैसे दुष्ट मनुष्य के सब मनोरथ! ॥ ३ ॥

तब सत बान सारथी मारेसि । परेउ भूमि जय राम पुकारेसि ॥
राम कृपा करि सूत उठावा । तब प्रभु परम क्रोध कहुँ पावा ॥ ४ ॥

तब उसने श्री रामजी के सारथी को सौ बाण मारे । वह श्री रामजी की जय पुकारकर पृथ्वी पर गिर पड़ा । श्री रामजी ने कृपा करके सारथी को उठाया । तब प्रभु अत्यंत क्रोध को प्राप्त हुए ॥ ४ ॥

छंद :

भए क्रुद्ध जुद्ध बिरुद्ध रघुपति त्रोन सायक कसमसे ।
कोदंड धुनि अति चंड सुनि मनुजाद सब मारुत ग्रसे ॥
मंदोदरी उर कंप कंपति कमठ भू भूधर त्रसे ।
चिक्करहिं दिग्गज दसन गहि महि देखि कौतुक सुर हँसे ॥

युद्ध में शत्रु के विरुद्ध श्री रघुनाथजी क्रोधित हुए, तब तरकस में बाण कसमसाने लगे (बाहर निकलने को आतुर होने लगे) । उनके धनुष का अत्यंत प्रचण्ड शब्द (टंकार) सुनकर मनुष्यभक्षी सब राक्षस वातग्रस्त हो गए (अत्यंत भयभीत हो गए) । मंदोदरी का हृदय काँप उठा, समुद्र, कच्छप, पृथ्वी और पर्वत डर गए । दिशाओं के हाथी पृथ्वी को दाँतों से पकड़कर चिंघाड़ने लगे । यह कौतुक देखकर देवता हँसे ।

दोहा :

तानेउ चाप श्रवन लगि छाँड़े बिसिख कराल ।
राम मारगन गन चले लहलहात जनु ब्याल ॥ ९१ ॥

धनुष को कान तक तानकर श्री रामचंद्रजी ने भयानक बाण छोड़े । श्री रामजी के बाण समूह ऐसे चले मानो सर्प लहलहाते (लहराते) हुए जा रहे हों ॥ ९१ ॥

चौपाई :

चले बान सपच्छ जनु उरगा । प्रथमहिं हतेउ सारथी तुरगा ॥
रथ बिभंजि हति केतु पताका । गर्जा अति अंतर बल थाका ॥ १ ॥

बाण ऐसे चले मानो पंख वाले सर्प उड़ रहे हों । उन्होंने पहले सारथी और घोड़ों को मार डाला । फिर रथ को चूर-चूर करके ध्वजा और पताकाओं को गिरा दिया । तब रावण बड़े जोर से गरजा, पर भीतर से उसका बल थक गया था ॥ १ ॥

तुरत आन रथ चढ़ि खिसिआना । अस्त्र सस्त्र छाँड़ेसि बिधि नाना ॥
बिफल होहिं सब उद्यम ताके । जिमि परद्रोह निरत मनसा के ॥ २ ॥

तुरंत दूसरे रथ पर चढ़कर खिसियाकर उसने नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र छोड़े । उसके सब उद्योग वैसे ही निष्फल हो गए, जैसे परद्रोह में लगे हुए चित्त वाले मनुष्य के होते हैं ॥ २ ॥

तब रावन दस सूल चलावा । बाजि चारि महि मारि गिरावा ॥
तुरग उठाइ कोपि रघुनायक । खैंचि सरासन छाँड़े सायक ॥ ३ ॥

तब रावण ने दस त्रिशूल चलाए और श्री रामजी के चारों घोड़ों को मारकर पृथ्वी पर गिरा दिया । घोड़ों को उठाकर श्री रघुनाथजी ने क्रोध करके धनुष खींचकर बाण छोड़े ॥ ३ ॥

रावन सिर सरोज बनचारी । चलि रघुबीर सिलीमुख धारी ॥
दस दस बान भाल दस मारे । निसरि गए चले रुधिर पनारे ॥ ४ ॥

रावण के सिर रूपी कमल वन में विचरण करने वाले श्री रघुवीर के बाण रूपी भ्रमरों की पंक्ति चली । श्री रामचंद्रजी ने उसके दसों सिरों में दस-दस बाण मारे, जो आर-पार हो गए और सिरों से रक्त के पनाले बह चले ॥ ४ ॥

स्रवत रुधिर धायउ बलवाना । प्रभु पुनि कृत धनु सर संधाना ॥
तीस तीर रघुबीर पबारे । भुजन्हि समेत सीस महि पारे ॥ ५ ॥

रुधिर बहते हुए ही बलवान् रावण दौड़ा । प्रभु ने फिर धनुष पर बाण संधान किया । श्री रघुवीर ने तीस बाण मारे और बीसों भुजाओं समेत दसों सिर काटकर पृथ्वी पर गिरा दिए ॥ ५ ॥

काटतहीं पुनि भए नबीने । राम बहोरि भुजा सिर छीने ॥
प्रभु बहु बार बाहु सिर हए । कटत झटिति पुनि नूतन भए ॥ ६ ॥

(सिर और हाथ) काटते ही फिर नए हो गए । श्री रामजी ने फिर भुजाओं और सिरों को काट गिराया । इस तरह प्रभु ने बहुत बार भुजाएँ और सिर काटे, परन्तु काटते ही वे तुरंत फिर नए हो गए ॥ ६ ॥

पुनि पुनि प्रभु काटत भुज सीसा । अति कौतुकी कोसलाधीसा ॥
रहे छाइ नभ सिर अरु बाहू । मानहुँ अमित केतु अरु राहू ॥ ७ ॥

प्रभु बार-बार उसकी भुजा और सिरों को काट रहे हैं, क्योंकि कोसलपति श्री रामजी बड़े कौतुकी हैं । आकाश में सिर और बाहु ऐसे छा गए हैं, मानो असंख्य केतु और राहु हों ॥ ७ ॥

छंद :

जनु राहु केतु अनेक नभ पथ स्रवत सोनित धावहीं ।
रघुबीर तीर प्रचंड लागहिं भूमि गिरत न पावहीं ॥
एक एक सर सिर निकर छेदे नभ उड़त इमि सोहहीं ।
जनु कोपि दिनकर कर निकर जहँ तहँ बिधुंतुद पोहहीं ॥

मानो अनेकों राहु और केतु रुधिर बहाते हुए आकाश मार्ग से दौड़ रहे हों । श्री रघुवीर के प्रचण्ड बाणों के (बार-बार) लगने से वे पृथ्वी पर गिरने नहीं पाते । एक-एक बाण से समूह के समूह सिर छिदे हुए आकाश में उड़ते ऐसे शोभा दे रहे हैं मानो सूर्य की किरणें क्रोध करके जहाँ-तहाँ राहुओं को पिरो रही हों ।

दोहा :

जिमि जिमि प्रभु हर तासु सिर तिमि होहिं अपार ।
सेवत बिषय बिबर्ध जिमि नित नित नूतन मार ॥ ९२ ॥

जैसे-जैसे प्रभु उसके सिरों को काटते हैं, वैसे ही वैसे वे अपार होते जाते हैं । जैसे विषयों का सेवन करने से काम (उन्हें भोगने की इच्छा) दिन-प्रतिदिन नया-नया बढ़ता जाता है ॥ ९२ ॥

चौपाई :

दसमुख देखि सिरन्ह कै बाढ़ी । बिसरा मरन भई रिस गाढ़ी ॥
गर्जेउ मूढ़ महा अभिमानी । धायउ दसहु सरासन तानी ॥ १ ॥

सिरों की बाढ़ देखकर रावण को अपना मरण भूल गया और बड़ा गहरा क्रोध हुआ । वह महान् अभिमानी मूर्ख गरजा और दसों धनुषों को तानकर दौड़ा ॥ १ ॥

समर भूमि दसकंधर कोप्यो । बरषि बान रघुपति रथ तोप्यो ॥
दंड एक रथ देखि न परेउ । जनु निहार महुँ दिनकर दुरेऊ ॥ २ ॥

रणभूमि में रावण ने क्रोध किया और बाण बरसाकर श्री रघुनाथजी के रथ को ढँक दिया । एक दण्ड (घड़ी) तक रथ दिखलाई न पड़ा, मानो कुहरे में सूर्य छिप गया हो ॥ २ ॥

हाहाकार सुरन्ह जब कीन्हा । तब प्रभु कोपि कारमुक लीन्हा ॥
सर निवारि रिपु के सिर काटे । ते दिसि बिदिसि गगन महि पाटे ॥ ३ ॥

जब देवताओं ने हाहाकार किया, तब प्रभु ने क्रोध करके धनुष उठाया और शत्रु के बाणों को हटाकर उन्होंने शत्रु के सिर काटे और उनसे दिशा, विदिशा, आकाश और पृथ्वी सबको पाट दिया ॥ ३ ॥

काटे सिर नभ मारग धावहिं । जय जय धुनि करि भय उपजावहिं ॥
कहँ लछिमन सुग्रीव कपीसा । कहँ रघुबीर कोसलाधीसा ॥ ४ ॥

काटे हुए सिर आकाश मार्ग से दौड़ते हैं और जय-जय की ध्वनि करके भय उत्पन्न करते हैं । ‘लक्ष्मण और वानरराज सुग्रीव कहाँ हैं? कोसलपति रघुवीर कहाँ हैं?’ ॥ ४ ॥

छंद :

कहँ रामु कहि सिर निकर धाए देखि मर्कट भजि चले ।
संधानि धनु रघुबंसमनि हँसि सरन्हि सिर बेधे भले ॥
सिर मालिका कर कालिका गहि बृंद बृंदन्हि बहु मिलीं ।
करि रुधिर सरि मज्जनु मनहुँ संग्राम बट पूजन चलीं ॥

‘राम कहाँ हैं?’ यह कहकर सिरों के समूह दौड़े, उन्हें देखकर वानर भाग चले । तब धनुष सन्धान करके रघुकुलमणि श्री रामजी ने हँसकर बाणों से उन सिरों को भलीभाँति बेध डाला । हाथों में मुण्डों की मालाएँ लेकर बहुत सी कालिकाएँ झुंड की झुंड मिलकर इकट्ठी हुईं और वे रुधिर की नदी में स्नान करके चलीं । मानो संग्राम रूपी वटवृक्ष की पूजा करने जा रही हों ।