छंद :

गहि भूमि पार्यो लात मार्यो बालिसुत प्रभु पहिं गयो ।
संभारि उठि दसकंठ घोर कठोर रव गर्जत भयो ॥
करि दाप चाप चढ़ाइ दस संधानि सर बहु बरषई ।
किए सकल भट घायल भयाकुल देखि निज बल हरषई ॥

उसे पकड़कर पृथ्वी पर गिराकर लात मारकर बालिपुत्र अंगद प्रभु के पास चले गए । रावण संभलकर उठा और बड़े भंयकर कठोर शब्द से गरजने लगा । वह दर्प करके दसों धनुष चढ़ाकर उन पर बहुत से बाण संधान करके बरसाने लगा । उसने सब योद्धाओं को घायल और भय से व्याकुल कर दिया और अपना बल देखकर वह हर्षित होने लगा ।

दोहा :

तब रघुपति रावन के सीस भुजा सर चाप ।
काटे बहुत बढ़े पुनि जिमि तीरथ कर पाप ॥ ९७ ॥

तब श्री रघुनाथजी ने रावण के सिर, भुजाएँ, बाण और धनुष काट डाले । पर वे फिर बहुत बढ़ गए, जैसे तीर्थ में किए हुए पाप बढ़ जाते हैं (कई गुना अधिक भयानक फल उत्पन्न करते हैं)! ॥ ९७ ॥

चौपाई :

सिर भुज बाढ़ि देखि रिपु केरी । भालु कपिन्ह रिस भई घनेरी ॥
मरत न मूढ़ कटेहुँ भुज सीसा । धाए कोपि भालु भट कीसा ॥ १ ॥

शत्रु के सिर और भुजाओं की बढ़ती देखकर रीछ-वानरों को बहुत ही क्रोध हुआ । यह मूर्ख भुजाओं के और सिरों के कटने पर भी नहीं मरता, (ऐसा कहते हुए) भालू और वानर योद्धा क्रोध करके दौड़े ॥ १ ॥

बालितनय मारुति नल नीला । बानरराज दुबिद बलसीला ॥
बिटप महीधर करहिं प्रहारा । सोइ गिरि तरु गहि कपिन्ह सो मारा ॥ २ ॥

बालिपुत्र अंगद, मारुति हनुमान् जी, नल, नील, वानरराज सुग्रीव और द्विविद आदि बलवान् उस पर वृक्ष और पर्वतों का प्रहार करते हैं । वह उन्हीं पर्वतों और वृक्षों को पकड़कर वानरों को मारता है ॥ २ ॥

एक नखन्हि रिपु बपुष बिदारी । भागि चलहिं एक लातन्ह मारी ।
तब नल नील सिरन्हि चढ़ि गयऊ । नखन्हि लिलार बिदारत भयऊ ॥ ३ ॥

कोई एक वानर नखों से शत्रु के शरीर को फाड़कर भाग जाते हैं, तो कोई उसे लातों से मारकर । तब नल और नील रावण के सिरों पर चढ़ गए और नखों से उसके ललाट को फाड़ने लगे ॥ ३ ॥

रुधिर देखि बिषाद उर भारी । तिन्हहि धरन कहुँ भुजा पसारी ॥
गहे न जाहिं करन्हि पर फिरहीं । जनु जुग मधुप कमल बन चरहीं ॥ ४ ॥

खून देखकर उसे हृदय में बड़ा दुःख हुआ । उसने उनको पकड़ने के लिए हाथ फैलाए, पर वे पकड़ में नहीं आते, हाथों के ऊपर-ऊपर ही फिरते हैं मानो दो भौंरे कमलों के वन में विचरण कर रहे हों ॥ ४ ॥

कोपि कूदि द्वौ धरेसि बहोरी । महि पटकत भजे भुजा मरोरी ॥
पुनि सकोप दस धनु कर लीन्हे । सरन्हि मारि घायल कपि कीन्हे ॥ ५ ॥

तब उसने क्रोध करके उछलकर दोनों को पकड़ लिया । पृथ्वी पर पटकते समय वे उसकी भुजाओं को मरोड़कर भाग छूटे । फिर उसने क्रोध करके हाथों में दसों धनुष लिए और वानरों को बाणों से मारकर घायल कर दिया ॥ ५ ॥

हनुमदादि मुरुछित करि बंदर । पाइ प्रदोष हरष दसकंधर ॥
मुरुछित देखि सकल कपि बीरा । जामवंत धायउ रनधीरा ॥ ६ ॥

हनुमान् जी आदि सब वानरों को मूर्च्छित करके और संध्या का समय पाकर रावण हर्षित हुआ । समस्त वानर-वीरों को मूर्च्छित देखकर रणधीर जाम्बवत् दौड़े ॥ ६ ॥

संग भालु भूधर तरु धारी । मारन लगे पचारि पचारी ॥
भयउ क्रुद्ध रावन बलवाना । गहि पद महि पटकइ भट नाना ॥ ७ ॥

जाम्बवान् के साथ जो भालू थे, वे पर्वत और वृक्ष धारण किए रावण को ललकार-ललकार कर मारने लगे । बलवान् रावण क्रोधित हुआ और पैर पकड़-पकड़कर वह अनेकों योद्धाओं को पृथ्वी पर पटकने लगा ॥ ७ ॥

देखि भालुपति निज दल घाता । कोपि माझ उर मारेसि लाता ॥ ८ ॥

जाम्बवान् ने अपने दल का विध्वंस देखकर क्रोध करके रावण की छाती में लात मारी ॥ ८ ॥

छंद :

उर लात घात प्रचंड लागत बिकल रथ ते महि परा ।
गहि भालु बीसहुँ कर मनहुँ कमलन्हि बसे निसि मधुकरा ॥
मुरुछित बिलोकि बहोरि पद हति भालुपति प्रभु पहिं गयो ॥
निसि जानि स्यंदन घालि तेहि तब सूत जतनु करय भयो ॥

छाती में लात का प्रचण्ड आघात लगते ही रावण व्याकुल होकर रथ से पृथ्वी पर गिर पड़ा । उसने बीसों हाथों में भालुओं को पकड़ रखा था । (ऐसा जान पड़ता था) मानो रात्रि के समय भौंरे कमलों में बसे हुए हों । उसे मूर्च्छित देखकर, फिर लात मारकर ऋक्षराज जाम्बवान् प्रभु के पास चले । रात्रि जानकर सारथी रावण को रथ में डालकर उसे होश में लाने का उपाय करने लगा ॥

दोहा :

मुरुछा बिगत भालु कपि सब आए प्रभु पास ।
निसिचर सकल रावनहि घेरि रहे अति त्रास ॥ ९८ ॥

मूर्च्छा दूर होने पर सब रीछ-वानर प्रभु के पास आए । उधर सब राक्षसों ने बहुत ही भयभीत होकर रावण को घेर लिया ॥ ९८ ॥

मासपारायण, छब्बीसवाँ विश्राम