दोहा :

गुर के बचन सुरति करि राम चरन मनु लाग ।
रघुपति जस गावत फिरउँ छन छन नव अनुराग ॥ ११० क ॥

गुरुजी के वचनों का स्मरण करके मेरा मन श्री रामजी के चरणों में लग गया । मैं क्षण-क्षण नया-नया प्रेम प्राप्त करता हुआ श्री रघुनाथजी का यश गाता फिरता था ॥ ११० (क) ॥

मेरु सिखर बट छायाँ मुनि लोमस आसीन ।
देखि चरन सिरु नायउँ बचन कहेउँ अति दीन ॥ ११० ख ॥

सुमेरु पर्वत के शिखर पर बड़ की छाया में लोमश मुनि बैठे थे । उन्हें देखकर मैंने उनके चरणों में सिर नवाया और अत्यंत दीन वचन कहे ॥ ११० (ख) ॥

सुनि मम बचन बिनीत मृदु मुनि कृपाल खगराज ।
मोहि सादर पूँछत भए द्विज आयहु केहि काज ॥ ११० ग ॥

हे पक्षीराज! मेरे अत्यंत नम्र और कोमल वचन सुनकर कृपालु मुनि मुझसे आदर के साथ पूछने लगे- हे ब्राह्मण! आप किस कार्य से यहाँ आए हैं ॥ ११० (ग) ॥

तब मैं कहा कृपानिधि तुम्ह सर्बग्य सुजान ।
सगुन ब्रह्म अवराधन मोहि कहहु भगवान ॥ ११० घ ॥

तब मैंने कहा - हे कृपा निधि! आप सर्वज्ञ हैं और सुजान हैं । हे भगवान् मुझे सगुण ब्रह्म की आराधना (की प्रक्रिया) कहिए । ११० (घ) ॥

चौपाई :

तब मुनीस रघुपति गुन गाथा । कहे कछुक सादर खगनाथा ॥
ब्रह्मग्यान रत मुनि बिग्यानी । मोहि परम अधिकारी जानी ॥ १ ॥

तब हे पक्षीराज! मुनीश्वर ने श्री रघुनाथजी के गुणों की कुछ कथाएँ आदर सहित कहीं । फिर वे ब्रह्मज्ञान परायण विज्ञानवान् मुनि मुझे परम अधिकारी जानकर- ॥ १ ॥

लागे करन ब्रह्म उपदेसा । अज अद्वैत अगुन हृदयेसा ॥
अकल अनीह अनाम अरूपा । अनुभव गम्य अखंड अनूपा ॥ २ ॥

ब्रह्म का उपदेश करने लगे कि वह अजन्मा है, अद्वैत है, निर्गुण है और हृदय का स्वामी (अंतर्यामी) है । उसे कोई बुद्धि के द्वारा माप नहीं सकता, वह इच्छारहित, नामरहित, रूपरहित, अनुभव से जानने योग्य, अखण्ड और उपमारहित है ॥ २ ॥

मन गोतीत अमल अबिनासी । निर्बिकार निरवधि सुख रासी ॥
सो तैं ताहि तोहि नहिं भेदा । बारि बीचि इव गावहिं बेदा ॥ ३ ॥

वह मन और इंद्रियों से परे, निर्मल, विनाशरहित, निर्विकार, सीमारहित और सुख की राशि है । वेद ऐसा गाते हैं कि वही तू है, (तत्वमसि), जल और जल की लहर की भाँति उसमें और तुझमें कोई भेद नहीं है ॥ ३ ॥

बिबिधि भाँति मोहि मुनि समुझावा । निर्गुन मत मम हृदयँ न आवा ॥
पुनि मैं कहेउँ नाइ पद सीसा । सगुन उपासन कहहु मुनीसा ॥ ४ ॥

मुनि ने मुझे अनेकों प्रकार से समझाया, पर निर्गुण मत मेरे हृदय में नहीं बैठा । मैंने फिर मुनि के चरणों में सिर नवाकर कहा - हे मुनीश्वर! मुझे सगुण ब्रह्म की उपासना कहिए ॥ ४ ॥

राम भगति जल मम मन मीना । किमि बिलगाइ मुनीस प्रबीना ॥
सोइ उपदेस कहहु करि दाया । निज नयनन्हि देखौं रघुराया ॥ ५ ॥

मेरा मन रामभक्ति रूपी जल में मछली हो रहा है (उसी में रम रहा है) । हे चतुर मुनीश्वर ऐसी दशा में वह उससे अलग कैसे हो सकता है? आप दया करके मुझे वही उपदेश (उपाय) कहिए जिससे मैं श्री रघुनाथजी को अपनी आँखों से देख सकूँ ॥ ५ ॥

भरि लोचन बिलोकि अवधेसा । तब सुनिहउँ निर्गुन उपदेसा ॥
मुनि पुनि कहि हरिकथा अनूपा । खंडि सगुन मत अगुन निरूपा ॥ ६ ॥

(पहले) नेत्र भरकर श्री अयोध्यानाथ को देखकर, तब निर्गुण का उपदेश सुनूँगा । मुनि ने फिर अनुपम हरिकथा कहकर, सगुण मत का खण्डन करके निर्गुण का निरूपण किया ॥ ६ ॥

तब मैं निर्गुन मत कर दूरी । सगुन निरूपउँ करि हठ भूरी ॥
उत्तर प्रतिउत्तर मैं कीन्हा । मुनि तन भए क्रोध के चीन्हा ॥ ७ ॥

तब मैं निर्गुण मत को हटाकर (काटकर) बहुत हठ करके सगुण का निरूपण करने लगा । मैंने उत्तर-प्रत्युत्तर किया, इससे मुनि के शरीर में क्रोध के चिह्न उत्पन्न हो गए ॥ ७ ॥

सुनु प्रभु बहुत अवग्या किएँ । उपज क्रोध ग्यानिन्ह के हिएँ ॥
अति संघरषन जौं कर कोई । अनल प्रगट चंदन ते होई ॥ ८ ॥

हे प्रभो! सुनिए, बहुत अपमान करने पर ज्ञानी के भी हृदय में क्रोध उत्पन्न हो जाता है । यदि कोई चंदन की लकड़ी को बहुत अधिक रग़ड़े, तो उससे भी अग्नि प्रकट हो जाएगी ॥ ८ ॥

दोहा :

बारंबार सकोप मुनि करइ निरूपन ग्यान ।
मैं अपनें मन बैठ तब करउँ बिबिधि अनुमान ॥ १११ क ॥

मुनि बार-बार क्रोध सहित ज्ञान का निरूपण करने लगे । तब मैं बैठा-बैठा अपने मन में अनेकों प्रकार के अनुमान करने लगा ॥ १११ (क) ॥

क्रोध कि द्वैतबुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अग्यान ।
मायाबस परिछिन्न जड़ जीव कि ईस समान ॥ १११ ख ॥ ॥ २ ॥

बिना द्वैतबुद्धि के क्रोध कैसा और बिना अज्ञान के क्या द्वैतबुद्धि हो सकती है? माया के वश रहने वाला परिच्छिन्न जड़ जीव क्या ईश्वर के समान हो सकता है? ॥ १११ (ख) ॥

कबहुँ कि दुःख सब कर हित ताकें । तेहि कि दरिद्र परस मनि जाकें ॥
परद्रोही की होहिं निसंका । कामी पुनि कि रहहिं अकलंका ॥ १ ॥

सबका हित चाहने से क्या कभी दुःख हो सकता है? जिसके पास पारसमणि है, उसके पास क्या दरिद्रता रह सकती है? दूसरे से द्रोह करने वाले क्या निर्भय हो सकते हैं और कामी क्या कलंकरहित (बेदाग) रह सकते हैं? ॥ १ ॥

बंस कि रह द्विज अनहित कीन्हें । कर्म की होहिं स्वरूपहि चीन्हें ॥
काहू सुमति कि खल सँग जामी । सुभ गति पाव कि परत्रिय गामी ॥ २ ॥

ब्राह्मण का बुरा करने से क्या वंश रह सकता है? स्वरूप की पहिचान (आत्मज्ञान) होने पर क्या (आसक्तिपूर्वक) कर्म हो सकते हैं? दुष्टों के संग से क्या किसी के सुबुद्धि उत्पन्न हुई है? परस्त्रीगामी क्या उत्तम गति पा सकता है? ॥ २ ॥

भव कि परहिं परमात्मा बिंदक । सुखी कि होहिं कबहुँ हरिनिंदक ॥
राजु कि रहइ नीति बिनु जानें । अघ कि रहहिं हरिचरित बखानें ॥ ३ ॥

परमात्मा को जानने वाले कहीं जन्म-मरण (के चक्कर) में पड़ सकते हैं? भगवान् की निंदा करने वाले कभी सुखी हो सकते हैं? नीति बिना जाने क्या राज्य रह सकता है? श्री हरि के चरित्र वर्णन करने पर क्या पाप रह सकते हैं? ॥ ३ ॥

पावन जस कि पुन्य बिनु होई । बिनु अघ अजस कि पावइ कोई ॥
लाभु कि किछु हरि भगति समाना । जेहि गावहिं श्रुति संत पुराना ॥ ४ ॥

बिना पुण्य के क्या पवित्र यश (प्राप्त) हो सकता है? बिना पाप के भी क्या कोई अपयश पा सकता है? जिसकी महिमा वेद, संत और पुराण गाते हैं और उस हरि भक्ति के समान क्या कोई दूसरा लाभ भी है? ॥ ४ ॥

हानि कि जग एहि सम किछु भाई । भजिअ न रामहि नर तनु पाई ॥
अघ कि पिसुनता सम कछु आना । धर्म कि दया सरिस हरिजाना ॥ ५ ॥

हे भाई! जगत् में क्या इसके समान दूसरी भी कोई हानि है कि मनुष्य का शरीर पाकर भी श्री रामजी का भजन न किया जाए? चुगलखोरी के समान क्या कोई दूसरा पाप है? और हे गरुड़जी! दया के समान क्या कोई दूसरा धर्म है? ॥ ५ ॥

एहि बिधि अमिति जुगुति मन गुनऊँ । मुनि उपदेस न सादर सुनउँ ॥
पुनि पुनि सगुन पच्छ मैं रोपा । तब मुनि बोलेउ बचन सकोपा ॥ ६ ॥

इस प्रकार मैं अनगिनत युक्तियाँ मन में विचारता था और आदर के साथ मुनि का उपदेश नहीं सुनता था । जब मैंने बार-बार सगुण का पक्ष स्थापित किया, तब मुनि क्रोधयुक्त वचन बोले - ॥ ६ ॥

मूढ़ परम सिख देउँ न मानसि । उत्तर प्रतिउत्तर बहु आनसि ॥
सत्य बचन बिस्वास न करही । बायस इव सबही ते डरही ॥ ७ ॥

अरे मूढ़! मैं तुझे सर्वोत्तम शिक्षा देता हूँ, तो भी तू उसे नहीं मानता और बहुत से उत्तर-प्रत्युत्तर (दलीलें) लाकर रखता है । मेरे सत्य वचन पर विश्वास नहीं करता । कौए की भाँति सभी से डरता है ॥ ७ ॥

सठ स्वपच्छ तव हृदयँ बिसाला । सपदि होहि पच्छी चंडाला ॥
लीन्ह श्राप मैं सीस चढ़ाई । नहिं कछु भय न दीनता आई ॥ ८ ॥

अरे मूर्ख! तेरे हृदय में अपने पक्ष का बड़ा भारी हठ है, अतः तू शीघ्र चाण्डाल पक्षी (कौआ) हो जा । मैंने आनंद के साथ मुनि के शाप को सिर पर चढ़ा लिया । उससे मुझे न कुछ भय हुआ, न दीनता ही आई ॥ ८ ॥

दोहा :

तुरत भयउँ मैं काग तब पुनि मुनि पद सिरु नाइ ।
सुमिरि राम रघुबंस मनि हरषित चलेउँ उड़ाइ ॥ ११२ क ॥

तब मैं तुरंत ही कौआ हो गया । फिर मुनि के चरणों में सिर नवाकर और रघुकुल शिरोमणि श्री रामजी का स्मरण करके मैं हर्षित होकर उड़ चला ॥ ११२ (क) ॥

उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध ।
निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध ॥ ११२ ख ॥

(शिवजी कहते हैं - ) हे उमा! जो श्री रामजी के चरणों के प्रेमी हैं और काम, अभिमान तथा क्रोध से रहित हैं, वे जगत् को अपने प्रभु से भरा हुआ देखते हैं, फिर वे किससे वैर करें ॥ ११२ (ख) ॥

चौपाई :

सुनु खगेस नहिं कछु रिषि दूषन । उर प्रेरक रघुबंस बिभूषन ॥
कृपासिंधु मुनि मति करि भोरी । लीन्ही प्रेम परिच्छा मोरी ॥ १ ॥

(काकभुशुण्डिजी ने कहा - ) हे पक्षीराज गरुड़जी! सुनिए, इसमें ऋषि का कुछ भी दोष नहीं था । रघुवंश के विभूषण श्री रामजी ही सबके हृदय में प्रेरणा करने वाले हैं । कृपा सागर प्रभु ने मुनि की बुद्धि को भोली करके (भुलावा देकर) मेरे प्रेम की परीक्षा ली ॥ १ ॥

मन बच क्रम मोहि निज जन जाना । मुनि मति पुनि फेरी भगवाना ॥
रिषि मम महत सीलता देखी । राम चरन बिस्वास बिसेषी ॥ २ ॥

मन, वचन और कर्म से जब प्रभु ने मुझे अपना दास जान लिया, तब भगवान् ने मुनि की बुद्धि फिर पलट दी । ऋषि ने मेरा महान् पुरुषों का सा स्वभाव (धैर्य, अक्रोध, विनय आदि) और श्री रामजी के चरणों में विशेष विश्वास देखा, ॥ २ ॥

अति बिसमय पुनि पुनि पछिताई । सादर मुनि मोहि लीन्ह बोलाई ॥
मम परितोष बिबिधि बिधि कीन्हा । हरषित राममंत्र तब दीन्हा ॥ ३ ॥

तब मुनि ने बहुत दुःख के साथ बार-बार पछताकर मुझे आदरपूर्वक बुला लिया । उन्होंने अनेकों प्रकार से मेरा संतोष किया और तब हर्षित होकर मुझे राममंत्र दिया ॥ ३ ॥

बालकरूप राम कर ध्याना । कहेउ मोहि मुनि कृपानिधाना ॥
सुंदर सुखद मोहि अति भावा । सो प्रथमहिं मैं तुम्हहि सुनावा ॥ ४ ॥

कृपानिधान मुनि ने मुझे बालक रूप श्री रामजी का ध्यान (ध्यान की विधि) बतलाया । सुंदर और सुख देने वाला यह ध्यान मुझे बहुत ही अच्छा लगा । वह ध्यान मैं आपको पहले ही सुना चुका हूँ ॥ ४ ॥

मुनि मोहि कछुक काल तहँ राखा । रामचरितमानस तब भाषा ॥
सादर मोहि यह कथा सुनाई । पुनि बोले मुनि गिरा सुहाई ॥ ५ ॥

मुनि ने कुछ समय तक मुझको वहाँ (अपने पास) रखा । तब उन्होंने रामचरित मानस वर्णन किया । आदरपूर्वक मुझे यह कथा सुनाकर फिर मुनि मुझसे सुंदर वाणी बोले - ॥ ५ ॥

रामचरित सर गुप्त सुहावा । संभु प्रसाद तात मैं पावा ॥
तोहि निज भगत राम कर जानी । ताते मैं सब कहेउँ बखानी ॥ ६ ॥

हे तात! यह सुंदर और गुप्त रामचरित मानस मैंने शिवजी की कृपा से पाया था । तुम्हें श्री रामजी का ‘निज भक्त’ जाना, इसी से मैंने तुमसे सब चरित्र विस्तार के साथ कहा ॥ ६ ॥

राम भगति जिन्ह कें उर नाहीं । कबहुँ न तात कहिअ तिन्ह पाहीं ॥
मुनि मोहि बिबिधि भाँति समुझावा । मैं सप्रेम मुनि पद सिरु नावा ॥ ७ ॥

हे तात! जिनके हृदय में श्री रामजी की भक्ति नहीं है, उनके सामने इसे कभी भी नहीं कहना चाहिए । मुनि ने मुझे बहुत प्रकार से समझाया । तब मैंने प्रेम के साथ मुनि के चरणों में सिर नवाया ॥ ७ ॥

निज कर कमल परसि मम सीसा । हरषित आसिष दीन्ह मुनीसा ॥
राम भगति अबिरल उर तोरें । बसिहि सदा प्रसाद अब मोरें ॥ ८ ॥

मुनीश्वर ने अपने करकमलों से मेरा सिर स्पर्श करके हर्षित होकर आशीर्वाद दिया कि अब मेरी कृपा से तेरे हृदय में सदा प्रगाढ़ राम भक्ति बसेगी ॥ ८ ॥

दोहा :

सदा राम प्रिय होहु तुम्ह सुभ गुन भवन अमान ।
कामरूप इच्छामरन ग्यान बिराग निधान ॥ ११३ क ॥

तुम सदा श्री रामजी को प्रिय होओ और कल्याण रूप गुणों के धाम, मानरहित, इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ, इच्छा मृत्यु (जिसकी शरीर छोड़ने की इच्छा करने पर ही मृत्यु हो, बिना इच्छा के मृत्यु न हो) एवं ज्ञान और वैराग्य के भण्डार होओ ॥ ११३ (क) ॥

जेहिं आश्रम तुम्ह बसब पुनि सुमिरत श्रीभगवंत ।
ब्यापिहि तहँ न अबिद्या जोजन एक प्रजंत ॥ ११३ ख ॥

इतना ही नहीं, श्री भगवान् को स्मरण करते हुए तुम जिस आश्रम में निवास करोगे वहाँ एक योजन (चार कोस) तक अविद्या (माया मोह) नहीं व्यापेगी ॥ ११३ (ख) ॥

चौपाई :

काल कर्म गुन दोष सुभाऊ । कछु दुख तुम्हहि न ब्यापिहि काऊ ॥
राम रहस्य ललित बिधि नाना । गुप्त प्रगट इतिहास पुराना ॥ १ ॥

काल, कर्म, गुण, दोष और स्वभाव से उत्पन्न कुछ भी दुःख तुमको कभी नहीं व्यापेगा । अनेकों प्रकार के सुंदर श्री रामजी के रहस्य (गुप्त मर्म के चरित्र और गुण), जो इतिहास और पुराणों में गुप्त और प्रकट हैं । (वर्णित और लक्षित हैं) ॥ १ ॥

बिनु श्रम तुम्ह जानब सब सोऊ । नित नव नेह राम पद होऊ ॥
जो इच्छा करिहहु मन माहीं । हरि प्रसाद कछु दुर्लभ नाहीं ॥ २ ॥

तुम उन सबको भी बिना ही परिश्रम जान जाओगे । श्री रामजी के चरणों में तुम्हारा नित्य नया प्रेम हो । अपने मन में तुम जो कुछ इच्छा करोगे, श्री हरि की कृपा से उसकी पूर्ति कुछ भी दुर्लभ नहीं होगी ॥ २ ॥ ।

सुनि मुनि आसिष सुनु मतिधीरा । ब्रह्मगिरा भइ गगन गँभीरा ॥
एवमस्तु तव बच मुनि ग्यानी । यह मम भगत कर्म मन बानी ॥ ३ ॥

हे धीरबुद्धि गरुड़जी! सुनिए, मुनि का आशीर्वाद सुनकर आकाश में गंभीर ब्रह्मवाणी हुई कि हे ज्ञानी मुनि! तुम्हारा वचन ऐसा ही (सत्य) हो । यह कर्म, मन और वचन से मेरा भक्त है ॥ ३ ॥

सुनि नभगिरा हरष मोहि भयऊ । प्रेम मगन सब संसय गयऊ ॥
करि बिनती मुनि आयसु पाई । पद सरोज पुनि पुनि सिरु नाई ॥ ४ ॥

आकाशवाणी सुनकर मुझे बड़ा हर्ष हुआ । मैं प्रेम में मग्न हो गया और मेरा सब संदेह जाता रहा । तदनन्तर मुनि की विनती करके, आज्ञा पाकर और उनके चरणकमलों में बार-बार सिर नवाकर- ॥ ४ ॥

हरष सहित एहिं आश्रम आयउँ । प्रभु प्रसाद दुर्लभ बर पायउँ ॥
इहाँ बसत मोहि सुनु खग ईसा । बीते कलप सात अरु बीसा ॥ ५ ॥

मैं हर्ष सहित इस आश्रम में आया । प्रभु श्री रामजी की कृपा से मैंने दुर्लभ वर पा लिया । हे पक्षीराज! मुझे यहाँ निवास करते सत्ताईस कल्प बीत गए ॥ ५ ॥

करउँ सदा रघुपति गुन गाना । सादर सुनहिं बिहंग सुजाना ॥
जब जब अवधपुरीं रघुबीरा । धरहिं भगत हित मनुज सरीरा ॥ ६ ॥

मैं यहाँ सदा श्री रघुनाथजी के गुणों का गान किया करता हूँ और चतुर पक्षी उसे आदरपूर्वक सुनते हैं । अयोध्यापुरी में जब-जब श्री रघुवीर भक्तों के (हित के) लिए मनुष्य शरीर धारण करते हैं, ॥ ६ ॥

तब तब जाइ राम पुर रहऊँ । सिसुलीला बिलोकि सुख लहऊँ ॥
पुनि उर राखि राम सिसुरूपा । निज आश्रम आवउँ खगभूपा ॥ ७ ॥

तब-तब मैं जाकर श्री रामजी की नगरी में रहता हूँ और प्रभु की शिशुलीला देखकर सुख प्राप्त करता हूँ । फिर हे पक्षीराज! श्री रामजी के शिशु रूप को हृदय में रखकर मैं अपने आश्रम में आ जाता हूँ ॥ ७ ॥

कथा सकल मैं तुम्हहि सुनाई । काग देहि जेहिं कारन पाई ॥
कहिउँ तात सब प्रस्न तुम्हारी । राम भगति महिमा अति भारी ॥ ८ ॥

जिस कारण से मैंने कौए की देह पाई, वह सारी कथा आपको सुना दी । हे तात! मैंने आपके सब प्रश्नों के उत्तर कहे । अहा! रामभक्ति की बड़ी भारी महिमा है ॥ ८ ॥

दोहा :

ताते यह तन मोहि प्रिय भयउ राम पद नेह ।
निज प्रभु दरसन पायउँ गए सकल संदेह ॥ ११४ क ॥

मुझे अपना यह काक शरीर इसीलिए प्रिय है कि इसमें मुझे श्री रामजी के चरणों का प्रेम प्राप्त हुआ । इसी शरीर से मैंने अपने प्रभु के दर्शन पाए और मेरे सब संदेह जाते रहे (दूर हुए) ॥ ११४ (क) ॥

मासपारायण, उनतीसवाँ विश्राम

भगति पच्छ हठ करि रहेउँ दीन्हि महारिषि साप ।
मुनि दुर्लभ बर पायउँ देखहु भजन प्रताप ॥ ११४ ख ॥

मैं हठ करके भक्ति पक्ष पर अड़ा रहा, जिससे महर्षि लोमश ने मुझे शाप दिया, परंतु उसका फल यह हुआ कि जो मुनियों को भी दुर्लभ है, वह वरदान मैंने पाया । भजन का प्रताप तो देखिए! ॥ ११४ (ख) ॥