चौपाई :

पुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊ । जौं कृपाल मोहि ऊपर भाऊ ॥ ।
नाथ मोहि निज सेवक जानी । सप्त प्रस्न मम कहहु बखानी ॥ १ ॥

पक्षीराज गरुड़जी फिर प्रेम सहित बोले - हे कृपालु! यदि मुझ पर आपका प्रेम है, तो हे नाथ! मुझे अपना सेवक जानकर मेरे सात प्रश्नों के उत्तर बखान कर कहिए ॥ १ ॥

प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा । सब ते दुर्लभ कवन सरीरा ॥
बड़ दुख कवन कवन सुख भारी । सोउ संछेपहिं कहहु बिचारी ॥ २ ॥

हे नाथ! हे धीर बुद्धि! पहले तो यह बताइए कि सबसे दुर्लभ कौन सा शरीर है फिर सबसे बड़ा दुःख कौन है और सबसे बड़ा सुख कौन है, यह भी विचार कर संक्षेप में ही कहिए ॥ २ ॥

संत असंत मरम तुम्ह जानहु । तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु ॥
कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला । कहहु कवन अघ परम कराला ॥ ३ ॥

संत और असंत का मर्म (भेद) आप जानते हैं, उनके सहज स्वभाव का वर्णन कीजिए । फिर कहिए कि श्रुतियों में प्रसिद्ध सबसे महान् पुण्य कौन सा है और सबसे महान् भयंकर पाप कौन है ॥ ३ ॥

मानस रोग कहहु समुझाई । तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई ॥
तात सुनहु सादर अति प्रीती । मैं संछेप कहउँ यह नीती ॥ ४ ॥

फिर मानस रोगों को समझाकर कहिए । आप सर्वज्ञ हैं और मुझ पर आपकी कृपा भी बहुत है । (काकभुशुण्डिजी ने कहा - ) हे तात अत्यंत आदर और प्रेम के साथ सुनिए । मैं यह नीति संक्षेप से कहता हूँ ॥ ४ ॥

नर तन सम नहिं कवनिउ देही । जीव चराचर जाचत तेही ॥
नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी । ग्यान बिराग भगति सुभ देनी ॥ ५ ॥

मनुष्य शरीर के समान कोई शरीर नहीं है । चर-अचर सभी जीव उसकी याचना करते हैं । वह मनुष्य शरीर नरक, स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है तथा कल्याणकारी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति को देने वाला है ॥ ५ ॥

सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर । होहिं बिषय रत मंद मंद तर ॥
काँच किरिच बदलें ते लेहीं । कर ते डारि परस मनि देहीं ॥ ६ ॥

ऐसे मनुष्य शरीर को धारण (प्राप्त) करके भी जो लोग श्री हरि का भजन नहीं करते और नीच से भी नीच विषयों में अनुरक्त रहते हैं, वे पारसमणि को हाथ से फेंक देते हैं और बदले में काँच के टुकड़े ले लेते हैं ॥ ६ ॥

नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं । संत मिलन सम सुख जग नाहीं ॥
पर उपकार बचन मन काया । संत सहज सुभाउ खगराया ॥ ७ ॥

जगत् में दरिद्रता के समान दुःख नहीं है तथा संतों के मिलने के समान जगत् में सुख नहीं है । और हे पक्षीराज! मन, वचन और शरीर से परोपकार करना, यह संतों का सहज स्वभाव है ॥ ७ ॥

संत सहहिं दुख पर हित लागी । पर दुख हेतु असंत अभागी ॥
भूर्ज तरू सम संत कृपाला । पर हित निति सह बिपति बिसाला ॥ ८ ॥

संत दूसरों की भलाई के लिए दुःख सहते हैं और अभागे असंत दूसरों को दुःख पहुँचाने के लिए । कृपालु संत भोज के वृक्ष के समान दूसरों के हित के लिए भारी विपत्ति सहते हैं (अपनी खाल तक उधड़वा लेते हैं) ॥ ८ ॥

सन इव खल पर बंधन करई । खाल कढ़ाई बिपति सहि मरई ॥
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी । अहि मूषक इव सुनु उरगारी ॥ ९ ॥

किंतु दुष्ट लोग सन की भाँति दूसरों को बाँधते हैं और (उन्हें बाँधने के लिए) अपनी खाल खिंचवाकर विपत्ति सहकर मर जाते हैं । हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी! सुनिए, दुष्ट बिना किसी स्वार्थ के साँप और चूहे के समान अकारण ही दूसरों का अपकार करते हैं ॥ ९ ॥

पर संपदा बिनासि नसाहीं । जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं ॥
दुष्ट उदय जग आरति हेतू । जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू ॥ १० ॥

वे पराई संपत्ति का नाश करके स्वयं नष्ट हो जाते हैं, जैसे खेती का नाश करके ओले नष्ट हो जाते हैं । दुष्ट का अभ्युदय (उन्नति) प्रसिद्ध अधम ग्रह केतु के उदय की भाँति जगत के दुःख के लिए ही होता है ॥ १० ॥

संत उदय संतत सुखकारी । बिस्व सुखद जिमि इंदु तमारी ॥
परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा । पर निंदा सम अघ न गरीसा ॥ ११ ॥

और संतों का अभ्युदय सदा ही सुखकर होता है, जैसे चंद्रमा और सूर्य का उदय विश्व भर के लिए सुखदायक है । वेदों में अहिंसा को परम धर्म माना है और परनिन्दा के समान भारी पाप नहीं है ॥ ११ ॥

हर गुर निंदक दादुर होई । जन्म सहस्र पाव तन सोई ॥
द्विज निंदक बहु नरक भोग करि । जग जनमइ बायस सरीर धरि ॥ १२ ॥

शंकरजी और गुरु की निंदा करने वाला मनुष्य (अगले जन्म में) मेंढक होता है और वह हजार जन्म तक वही मेंढक का शरीर पाता है । ब्राह्मणों की निंदा करने वाला व्यक्ति बहुत से नरक भोगकर फिर जगत् में कौए का शरीर धारण करके जन्म लेता है ॥ १२ ॥

सुर श्रुति निंदक जे अभिमानी । रौरव नरक परहिं ते प्रानी ॥
होहिं उलूक संत निंदा रत । मोह निसा प्रिय ग्यान भानु गत ॥ १३ ॥

जो अभिमानी जीव देवताओं और वेदों की निंदा करते हैं, वे रौरव नरक में पड़ते हैं । संतों की निंदा में लगे हुए लोग उल्लू होते हैं, जिन्हें मोह रूपी रात्रि प्रिय होती है और ज्ञान रूपी सूर्य जिनके लिए बीत गया (अस्त हो गया) रहता है ॥ १३ ॥

सब कै निंदा जे जड़ करहीं । ते चमगादुर होइ अवतरहीं ॥
सुनहु तात अब मानस रोगा । जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा ॥ १४ ॥

जो मूर्ख मनुष्य सब की निंदा करते हैं, वे चमगादड़ होकर जन्म लेते हैं । हे तात! अब मानस रोग सुनिए, जिनसे सब लोग दुःख पाया करते हैं ॥ १४ ॥

मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला । तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला ॥
काम बात कफ लोभ अपारा । क्रोध पित्त नित छाती जारा ॥ १५ ॥

सब रोगों की जड़ मोह (अज्ञान) है । उन व्याधियों से फिर और बहुत से शूल उत्पन्न होते हैं । काम वात है, लोभ अपार (बढ़ा हुआ) कफ है और क्रोध पित्त है जो सदा छाती जलाता रहता है ॥ १५ ॥

प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई । उपजइ सन्यपात दुखदाई ॥
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना । ते सब सूल नाम को जाना ॥ १६ ॥

यदि कहीं ये तीनों भाई (वात, पित्त और कफ) प्रीति कर लें (मिल जाएँ), तो दुःखदायक सन्निपात रोग उत्पन्न होता है । कठिनता से प्राप्त (पूर्ण) होने वाले जो विषयों के मनोरथ हैं, वे ही सब शूल (कष्टदायक रोग) हैं, उनके नाम कौन जानता है (अर्थात् वे अपार हैं) ॥ १६ ॥

चौपाई :

ममता दादु कंडु इरषाई । हरष बिषाद गरह बहुताई ॥
पर सुख देखि जरनि सोइ छई । कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई ॥ १७ ॥

ममता दाद है, ईर्षा (डाह) खुजली है, हर्ष-विषाद गले के रोगों की अधिकता है (गलगंड, कण्ठमाला या घेघा आदि रोग हैं), पराए सुख को देखकर जो जलन होती है, वही क्षयी है । दुष्टता और मन की कुटिलता ही कोढ़ है ॥ १७ ॥

अहंकार अति दुखद डमरुआ । दंभ कपट मद मान नेहरुआ ॥
तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी । त्रिबिधि ईषना तरुन तिजारी ॥ १८ ॥

अहंकार अत्यंत दुःख देने वाला डमरू (गाँठ का) रोग है । दम्भ, कपट, मद और मान नहरुआ (नसों का) रोग है । तृष्णा बड़ा भारी उदर वृद्धि (जलोदर) रोग है । तीन प्रकार (पुत्र, धन और मान) की प्रबल इच्छाएँ प्रबल तिजारी हैं ॥ १८ ॥

जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका । कहँ लगि कहौं कुरोग अनेका ॥ १९ ॥

मत्सर और अविवेक दो प्रकार के ज्वर हैं । इस प्रकार अनेकों बुरे रोग हैं, जिन्हें कहाँ तक कहूँ ॥ १९ ॥

दोहा :

एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि ।
पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि ॥ १२१ क ॥

एक ही रोग के वश होकर मनुष्य मर जाते हैं, फिर ये तो बहुत से असाध्य रोग हैं । ये जीव को निरंतर कष्ट देते रहते हैं, ऐसी दशा में वह समाधि (शांति) को कैसे प्राप्त करे? ॥ १२१ (क) ॥

नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान ।
भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान ॥ १२१ ख ॥

नियम, धर्म, आचार (उत्तम आचरण), तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान तथा और भी करोड़ों औषधियाँ हैं, परंतु हे गरुड़जी! उनसे ये रोग नहीं जाते ॥ १२१ (ख) ॥

चौपाई :

एहि बिधि सकल जीव जग रोगी । सोक हरष भय प्रीति बियोगी ॥
मानस रोग कछुक मैं गाए । हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए ॥ १ ॥

इस प्रकार जगत् में समस्त जीव रोगी हैं, जो शोक, हर्ष, भय, प्रीति और वियोग के दुःख से और भी दुःखी हो रहे हैं । मैंने ये थो़ड़े से मानस रोग कहे हैं । ये हैं तो सबको, परंतु इन्हें जान पाए हैं कोई विरले ही ॥ १ ॥

जाने ते छीजहिं कछु पापी । नास न पावहिं जन परितापी ॥
बिषय कुपथ्य पाइ अंकुरे । मुनिहु हृदयँ का नर बापुरे ॥ २ ॥

प्राणियों को जलाने वाले ये पापी (रोग) जान लिए जाने से कुछ क्षीण अवश्य हो जाते हैं, परंतु नाश को नहीं प्राप्त होते । विषय रूप कुपथ्य पाकर ये मुनियों के हृदय में भी अंकुरित हो उठते हैं, तब बेचारे साधारण मनुष्य तो क्या चीज हैं ॥ २ ॥

राम कृपाँ नासहिं सब रोगा । जौं एहि भाँति बनै संजोगा ॥
सदगुर बैद बचन बिस्वासा । संजम यह न बिषय कै आसा ॥ ३ ॥

यदि श्री रामजी की कृपा से इस प्रकार का संयोग बन जाए तो ये सब रोग नष्ट हो जाएँ । सद्गुरु रूपी वैद्य के वचन में विश्वास हो । विषयों की आशा न करे, यही संयम (परहेज) हो ॥ ३ ॥

चौपाई :

रघुपति भगति सजीवन मूरी । अनूपान श्रद्धा मति पूरी ॥
एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं । नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं ॥ ४ ॥

श्री रघुनाथजी की भक्ति संजीवनी जड़ी है । श्रद्धा से पूर्ण बुद्धि ही अनुपान (दवा के साथ लिया जाने वाला मधु आदि) है । इस प्रकार का संयोग हो तो वे रोग भले ही नष्ट हो जाएँ, नहीं तो करोड़ों प्रयत्नों से भी नहीं जाते ॥ ४ ॥

जानिअ तब मन बिरुज गोसाँई । जब उर बल बिराग अधिकाई ॥
सुमति छुधा बाढ़इ नित नई । बिषय आस दुर्बलता गई ॥ ५ ॥

हे गोसाईं! मन को निरोग हुआ तब जानना चाहिए, जब हृदय में वैराग्य का बल बढ़ जाए, उत्तम बुद्धि रूपी भूख नित नई बढ़ती रहे और विषयों की आशा रूपी दुर्बलता मिट जाए ॥ ५ ॥

बिमल ग्यान जल जब सो नहाई । तब रह राम भगति उर छाई ॥
सिव अज सुक सनकादिक नारद । जे मुनि ब्रह्म बिचार बिसारद ॥ ६ ॥

इस प्रकार सब रोगों से छूटकर जब मनुष्य निर्मल ज्ञान रूपी जल में स्नान कर लेता है, तब उसके हृदय में राम भक्ति छा रहती है । शिवजी, ब्रह्माजी, शुकदेवजी, सनकादि और नारद आदि ब्रह्मविचार में परम निपुण जो मुनि हैं, ॥ ६ ॥

सब कर मत खगनायक एहा । करिअ राम पद पंकज नेहा ॥
श्रुति पुरान सब ग्रंथ कहाहीं । रघुपति भगति बिना सुख नाहीं ॥ ७ ॥

हे पक्षीराज! उन सबका मत यही है कि श्री रामजी के चरणकमलों में प्रेम करना चाहिए । श्रुति, पुराण और सभी ग्रंथ कहते हैं कि श्री रघुनाथजी की भक्ति के बिना सुख नहीं है ॥ ७ ॥

कमठ पीठ जामहिं बरु बारा । बंध्या सुत बरु काहुहि मारा ॥
फूलहिं नभ बरु बहुबिधि फूला । जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला ॥ ८ ॥

कछुए की पीठ पर भले ही बाल उग आवें, बाँझ का पुत्र भले ही किसी को मार डाले, आकाश में भले ही अनेकों प्रकार के फूल खिल उठें, परंतु श्री हरि से विमुख होकर जीव सुख नहीं प्राप्त कर सकता ॥ ८ ॥

तृषा जाइ बरु मृगजल पाना । बरु जामहिं सस सीस बिषाना ॥
अंधकारु बरु रबिहि नसावै । राम बिमुख न जीव सुख पावै ॥ ९ ॥

मृगतृष्णा के जल को पीने से भले ही प्यास बुझ जाए, खरगोश के सिर पर भले ही सींग निकल आवे, अन्धकार भले ही सूर्य का नाश कर दे, परंतु श्री राम से विमुख होकर जीव सुख नहीं पा सकता ॥ ९ ॥

हिम ते अनल प्रगट बरु होई । बिमुख राम सुख पाव न कोई ॥ १० ॥

बर्फ से भले ही अग्नि प्रकट हो जाए (ये सब अनहोनी बातें चाहे हो जाएँ), परंतु श्री राम से विमुख होकर कोई भी सुख नहीं पा सकता ॥ १० ॥