दोहा :

आजु धन्य मैं धन्य अति जद्यपि सब बिधि हीन ।
निज जन जानि राम मोहि संत समागम दीन ॥ १२३ क ॥

यद्यपि मैं सब प्रकार से हीन (नीच) हूँ, तो भी आज मैं धन्य हूँ, अत्यंत धन्य हूँ, जो श्री रामजी ने मुझे अपना ‘निज जन’ जानकर संत समागम दिया (आपसे मेरी भेंट कराई) ॥ १२३ (क) ॥

नाथ जथामति भाषेउँ राखेउँ नहिं कछु गोइ ।
चरित सिंधु रघुनायक थाह कि पावइ कोइ ॥ १२३ ख ॥

हे नाथ! मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार कहा, कुछ भी छिपा नहीं रखा । (फिर भी) श्री रघुवीर के चरित्र समुद्र के समान हैं, क्या उनकी कोई थाह पा सकता है? ॥ १२३ (ख) ॥

चौपाई :

सुमिरि राम के गुन गन नाना । पुनि पुनि हरष भुसुंडि सुजाना ॥
महिमा निगम नेत करि गाई । अतुलित बल प्रताप प्रभुताई ॥ १ ॥

श्री रामचंद्रजी के बहुत से गुण समूहों का स्मरण कर-करके सुजान भुशुण्डिजी बार-बार हर्षित हो रहे हैं । जिनकी महिमा वेदों ने ‘नेति-नेति’ कहकर गाई है, जिनका बल, प्रताप और प्रभुत्व (सामर्थ्य) अतुलनीय है, ॥ १ ॥

सिव अज पूज्य चरन रघुराई । मो पर कृपा परम मृदुलाई ॥
अस सुभाउ कहुँ सुनउँ न देखउँ । केहि खगेस रघुपति सम लेखउँ ॥ २ ॥

जिन श्री रघुनाथजी के चरण शिवजी और ब्रह्माजी के द्वारा पूज्य हैं, उनकी मुझ पर कृपा होनी उनकी परम कोमलता है । किसी का ऐसा स्वभाव कहीं न सुनता हूँ, न देखता हूँ । अतः हे पक्षीराज गरुड़जी! मैं श्री रघुनाथजी के समान किसे गिनूँ (समझूँ)? ॥ २ ॥

साधक सिद्ध बिमुक्त उदासी । कबि कोबिद कृतग्य संन्यासी ॥
जोगी सूर सुतापस ग्यानी । धर्म निरत पंडित बिग्यानी ॥ ३ ॥

साधक, सिद्ध, जीवनमुक्त, उदासीन (विरक्त), कवि, विद्वान, कर्म (रहस्य) के ज्ञाता, संन्यासी, योगी, शूरवीर, बड़े तपस्वी, ज्ञानी, धर्मपरायण, पंडित और विज्ञानी- ॥ ३ ॥

तरहिं न बिनु सेएँ मम स्वामी । राम नमामि नमामि नमामी ॥
सरन गएँ मो से अघ रासी । होहिं सुद्ध नमामि अबिनासी ॥ ४ ॥

ये कोई भी मेरे स्वामी श्री रामजी का सेवन (भजन) किए बिना नहीं तर सकते । मैं, उन्हीं श्री रामजी को बार-बार नमस्कार करता हूँ । जिनकी शरण जाने पर मुझ जैसे पापराशि भी शुद्ध (पापरहित) हो जाते हैं, उन अविनाशी श्री रामजी को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ४ ॥

दोहा :

जासु नाम भव भेषज हरन घोर त्रय सूल
सो कृपाल मोहि तो पर सदा रहउ अनुकूल ॥ १२४ क ॥

जिनका नाम जन्म-मरण रूपी रोग की (अव्यर्थ) औषध और तीनों भयंकर पीड़ाओं (आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक दुःखों) को हरने वाला है, वे कृपालु श्री रामजी मुझ पर और आप पर सदा प्रसन्न रहें ॥ १२४ (क) ॥

सुनि भुसुंडि के बचन सुभ देखि राम पद नेह ।
बोलेउ प्रेम सहित गिरा गरुड़ बिगत संदेह ॥ १२४ ख ॥

भुशुण्डिजी के मंगलमय वचन सुनकर और श्री रामजी के चरणों में उनका अतिशय प्रेम देखकर संदेह से भलीभाँति छूटे हुए गरुड़जी प्रेमसहित वचन बोले ॥ १२४ (ख) ॥

चौपाई :

मैं कृतकृत्य भयउँ तव बानी । सुनि रघुबीर भगति रस सानी ॥
राम चरन नूतन रत भई । माया जनित बिपति सब गई ॥ १ ॥

श्री रघुवीर के भक्ति रस में सनी हुई आपकी वाणी सुनकर मैं कृतकृत्य हो गया । श्री रामजी के चरणों में मेरी नवीन प्रीति हो गई और माया से उत्पन्न सारी विपत्ति चली गई ॥ १ ॥

मोह जलधि बोहित तुम्ह भए । मो कहँ नाथ बिबिध सुख दए ॥
मो पहिं होइ न प्रति उपकारा । बंदउँ तव पद बारहिं बारा ॥ २ ॥

मोह रूपी समुद्र में डूबते हुए मेरे लिए आप जहाज हुए । हे नाथ! आपने मुझे बहुत प्रकार के सुख दिए (परम सुखी कर दिया) । मुझसे इसका प्रत्युपकार (उपकार के बदले में उपकार) नहीं हो सकता । मैं तो आपके चरणों की बार-बार वंदना ही करता हूँ ॥ २ ॥

पूरन काम राम अनुरागी । तुम्ह सम तात न कोउ बड़भागी ॥
संत बिटप सरिता गिरि धरनी । पर हित हेतु सबन्ह कै करनी ॥ ३ ॥

आप पूर्णकाम हैं और श्री रामजी के प्रेमी हैं । हे तात! आपके समान कोई बड़भागी नहीं है । संत, वृक्ष, नदी, पर्वत और पृथ्वी- इन सबकी क्रिया पराए हित के लिए ही होती है ॥ ३ ॥

संत हृदय नवनीत समाना । कहा कबिन्ह परि कहै न जाना ॥
निज परिताप द्रवइ नवनीता । पर सुख द्रवहिं संत सुपुनीता ॥ ४ ॥

संतों का हृदय मक्खन के समान होता है, ऐसा कवियों ने कहा है, परंतु उन्होंने (असली बात) कहना नहीं जाना, क्योंकि मक्खन तो अपने को ताप मिलने से पिघलता है और परम पवित्र संत दूसरों के दुःख से पिघल जाते हैं ॥ ४ ॥

जीवन जन्म सफल मम भयऊ । तव प्रसाद संसय सब गयऊ ॥
जानेहु सदा मोहि निज किंकर । पुनि पुनि उमा कहइ बिहंगबर ॥ ५ ॥

मेरा जीवन और जन्म सफल हो गया । आपकी कृपा से सब संदेह चला गया । मुझे सदा अपना दास ही जानिएगा । (शिवजी कहते हैं - ) हे उमा! पक्षी श्रेष्ठ गरुड़जी बार-बार ऐसा कह रहे हैं ॥ ५ ॥

दोहा :

तासु चरन सिरु नाइ करि प्रेम सहित मतिधीर ।
गयउ गरुड़ बैकुंठ तब हृदयँ राखि रघुबीर ॥ १२५ क ॥

उन (भुशुण्डिजी) के चरणों में प्रेमसहित सिर नवाकर और हृदय में श्री रघुवीर को धारण करके धीरबुद्धि गरु़ड़जी तब वैकुंठ को चले गए ॥ १२५ (क) ॥

गिरिजा संत समागम सम न लाभ कछु आन ।
बिनु हरि कृपा न होइ सो गावहिं बेद पुरान ॥ १२५ ख ॥

हे गिरिजे! संत समागम के समान दूसरा कोई लाभ नहीं है । पर वह (संत समागम) श्री हरि की कृपा के बिना नहीं हो सकता, ऐसा वेद और पुराण गाते हैं ॥ १२५ (ख) ॥

चौपाई :

कहेउँ परम पुनीत इतिहासा । सुनत श्रवन छूटहिं भव पासा ॥
प्रनत कल्पतरु करुना पुंजा । उपजइ प्रीति राम पद कंजा ॥ १ ॥

मैंने यह परम पवित्र इतिहास कहा, जिसे कानों से सुनते ही भवपाश (संसार के बंधन) छूट जाते हैं और शरणागतों को (उनके इच्छानुसार फल देने वाले) कल्पवृक्ष तथा दया के समूह श्री रामजी के चरणकमलों में प्रेम उत्पन्न होता है ॥ १ ॥

मन क्रम बचन जनित अघ जाई । सुनहिं जे कथा श्रवन मन लाई ॥
तीर्थाटन साधन समुदाई । जोग बिराग ग्यान निपुनाई ॥ २ ॥

जो कान और मन लगाकर इस कथा को सुनते हैं, उनके मन, वचन और कर्म (शरीर) से उत्पन्न सब पाप नष्ट हो जाते हैं । तीर्थ यात्रा आदि बहुत से साधन, योग, वैराग्य और ज्ञान में निपुणता, ॥ २ ॥

नाना कर्म धर्म ब्रत दाना । संजम दम जप तप मख नाना ॥
भूत दया द्विज गुर सेवकाई । बिद्या बिनय बिबेक बड़ाई ॥ ३ ॥

अनेकों प्रकार के कर्म, धर्म, व्रत और दान, अनेकों संयम दम, जप, तप और यज्ञ, प्राणियों पर दया, ब्राह्मण और गुरु की सेवा, विद्या, विनय और विवेक की बड़ाई (आदि)- ॥ ३ ॥

जहँ लगि साधन बेद बखानी । सब कर फल हरि भगति भवानी ॥
सो रघुनाथ भगति श्रुति गाई । राम कृपाँ काहूँ एक पाई ॥ ४ ॥

जहाँ तक वेदों ने साधन बतलाए हैं, हे भवानी! उन सबका फल श्री हरि की भक्ति ही है, किंतु श्रुतियों में गाई हुई वह श्री रघुनाथजी की भक्ति श्री रामजी की कृपा से किसी एक (विरले) ने ही पाई है ॥ ४ ।

दोहा :

मुनि दुर्लभ हरि भगति नर पावहिं बिनहिं प्रयास ।
जे यह कथा निरंतर सुनहिं मानि बिस्वास ॥ १२६ ॥

किंतु जो मनुष्य विश्वास मानकर यह कथा निरंतर सुनते हैं, वे बिना ही परिश्रम उस मुनि दुर्लभ हरि भक्ति को प्राप्त कर लेते हैं ॥ १२६ ॥

चौपाई :

सोइ सर्बग्य गुनी सोइ ग्याता । सोइ महि मंडित पंडित दाता ॥
धर्म परायन सोइ कुल त्राता । राम चरन जा कर मन राता ॥ १ ॥

जिसका मन श्री रामजी के चरणों में अनुरक्त है, वही सर्वज्ञ (सब कुछ जानने वाला) है, वही गुणी है, वही ज्ञानी है । वही पृथ्वी का भूषण, पण्डित और दानी है । वही धर्मपरायण है और वही कुल का रक्षक है ॥ १ ॥

नीति निपुन सोइ परम सयाना । श्रुति सिद्धांत नीक तेहिं जाना ॥
सोइ कबि कोबिद सोइ रनधीरा । जो छल छाड़ि भजइ रघुबीरा ॥ २ ॥

जो छल छो़ड़कर श्री रघुवीर का भजन करता है, वही नीति में निपुण है, वही परम् बुद्धिमान है । उसी ने वेदों के सिद्धांत को भली-भाँति जाना है । वही कवि, वही विद्वान् तथा वही रणधीर है ॥ २ ॥

धन्य देस सो जहँ सुरसरी । धन्य नारि पतिब्रत अनुसरी ॥
धन्य सो भूपु नीति जो करई । धन्य सो द्विज निज धर्म न टरई ॥ ३ ॥

वह देश धन्य है, जहाँ श्री गंगाजी हैं, वह स्त्री धन्य है जो पातिव्रत धर्म का पालन करती है । वह राजा धन्य है जो न्याय करता है और वह ब्राह्मण धन्य है जो अपने धर्म से नहीं डिगता है ॥ ३ ॥

सो धन धन्य प्रथम गति जाकी । धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी ॥
धन्य घरी सोइ जब सतसंगा । धन्य जन्म द्विज भगति अभंगा ॥ ४ ॥

वह धन धन्य है, जिसकी पहली गति होती है (जो दान देने में व्यय होता है) वही बुद्धि धन्य और परिपक्व है जो पुण्य में लगी हुई है । वही घड़ी धन्य है जब सत्संग हो और वही जन्म धन्य है जिसमें ब्राह्मण की अखण्ड भक्ति हो ॥ ४ ॥

(धन की तीन गतियाँ होती हैं - दान, भोग और नाश । दान उत्तम है, भोग मध्यम है और नाश नीच गति है । जो पुरुष न देता है, न भोगता है, उसके धन की तीसरी गति होती है । )

दोहा:

सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत ।
श्रीरघुबीर परायन जेहिं नर उपज बिनीत ॥ १२७ ॥

हे उमा! सुनो वह कुल धन्य है, संसारभर के लिए पूज्य है और परम पवित्र है, जिसमें श्री रघुवीर परायण (अनन्य रामभक्त) विनम्र पुरुष उत्पन्न हों ॥ १२७ ॥

चौपाई :

मति अनुरूप कथा मैं भाषी । जद्यपि प्रथम गुप्त करि राखी ॥
तव मन प्रीति देखि अधिकाई । तब मैं रघुपति कथा सुनाई ॥ १ ॥

मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार यह कथा कही, यद्यपि पहले इसको छिपाकर रखा था । जब तुम्हारे मन में प्रेम की अधिकता देखी तब मैंने श्री रघुनाथजी की यह कथा तुमको सुनाई ॥ १ ॥

यह न कहिअ सठही हठसीलहि । जो मन लाइ न सुन हरि लीलहि ॥
कहिअ न लोभिहि क्रोधिहि कामिहि । जो न भजइ सचराचर स्वामिहि ॥ २ ॥

यह कथा उनसे न कहनी चाहिए जो शठ (धूर्त) हों, हठी स्वभाव के हों और श्री हरि की लीला को मन लगाकर न सुनते हों । लोभी, क्रोधी और कामी को, जो चराचर के स्वामी श्री रामजी को नहीं भजते, यह कथा नहीं कहनी चाहिए ॥ २ ॥

द्विज द्रोहिहि न सुनाइअ कबहूँ । सुरपति सरिस होइ नृप जबहूँ ॥
रामकथा के तेइ अधिकारी । जिन्ह कें सत संगति अति प्यारी ॥ ३ ॥

ब्राह्मणों के द्रोही को, यदि वह देवराज (इन्द्र) के समान ऐश्वर्यवान् राजा भी हो, तब भी यह कथा न सुनानी चाहिए । श्री रामकथा के अधिकारी वे ही हैं जिनको सत्संगति अत्यंत प्रिय है ॥ ३ ॥

गुर पद प्रीति नीति रत जेई । द्विज सेवक अधिकारी तेई ॥
ता कहँ यह बिसेष सुखदाई । जाहि प्रानप्रिय श्रीरघुराई ॥ ४ ॥

जिनकी गुरु के चरणों में प्रीति है, जो नीतिपरायण हैं और ब्राह्मणों के सेवक हैं, वे ही इसके अधिकारी हैं और उसको तो यह कथा बहुत ही सुख देने वाली है, जिसको श्री रघुनाथजी प्राण के समान प्यारे हैं ॥ ४ ॥

दोहा :

राम चरन रति जो चह अथवा पद निर्बान ।
भाव सहित सो यह कथा करउ श्रवन पुट पान ॥ १२८ ॥

जो श्री रामजी के चरणों में प्रेम चाहता हो या मोक्षपद चाहता हो, वह इस कथा रूपी अमृत को प्रेमपूर्वक अपने कान रूपी दोने से पिए ॥ १२८ ॥

चौपाई :

राम कथा गिरिजा मैं बरनी । कलि मल समनि मनोमल हरनी ॥
संसृति रोग सजीवन मूरी । राम कथा गावहिं श्रुति सूरी ॥ १ ॥

हे गिरिजे! मैंने कलियुग के पापों का नाश करने वाली और मन के मल को दूर करने वाली रामकथा का वर्णन किया । यह रामकथा संसृति (जन्म-मरण) रूपी रोग के (नाश के) लिए संजीवनी जड़ी है, वेद और विद्वान पुरुष ऐसा कहते हैं ॥ १ ॥

एहि महँ रुचिर सप्त सोपाना । रघुपति भगति केर पंथाना ॥
अति हरि कृपा जाहि पर होई । पाउँ देइ एहिं मारग सोई ॥ २ ॥

इसमें सात सुंदर सीढ़ियाँ हैं, जो श्री रघुनाथजी की भक्ति को प्राप्त करने के मार्ग हैं । जिस पर श्री हरि की अत्यंत कृपा होती है, वही इस मार्ग पर पैर रखता है ॥ २ ॥

मन कामना सिद्धि नर पावा । जे यह कथा कपट तजि गावा ॥
कहहिं सुनहिं अनुमोदन करहीं । ते गोपद इव भवनिधि तरहीं ॥ ३ ॥

जो कपट छोड़कर यह कथा गाते हैं, वे मनुष्य अपनी मनःकामना की सिद्धि पा लेते हैं, जो इसे कहते-सुनते और अनुमोदन (प्रशंसा) करते हैं, वे संसार रूपी समुद्र को गो के खुर से बने हुए गड्ढे की भाँति पार कर जाते हैं ॥ ३ ॥

सुनि सब कथा हृदय अति भाई । गिरिजा बोली गिरा सुहाई ॥
नाथ कृपाँ मम गत संदेहा । राम चरन उपजेउ नव नेहा ॥ ४ ॥

(याज्ञवल्क्यजी कहते हैं - ) सब कथा सुनकर श्री पार्वतीजी के हृदय को बहुत ही प्रिय लगी और वे सुंदर वाणी बोलीं - स्वामी की कृपा से मेरा संदेह जाता रहा और श्री रामजी के चरणों में नवीन प्रेम उत्पन्न हो गया ॥ ४ ॥

दोहा :

मैं कृतकृत्य भइउँ अब तव प्रसाद बिस्वेस ।
उपजी राम भगति दृढ़ बीते सकल कलेस ॥ १२९ ॥

हे विश्वनाथ! आपकी कृपा से अब मैं कृतार्थ हो गई । मुझमें दृढ़ राम भक्ति उत्पन्न हो गई और मेरे संपूर्ण क्लेश बीत गए (नष्ट हो गए) ॥ १२९ ॥

चौपाई :

यह सुभ संभु उमा संबादा । सुख संपादन समन बिषादा ॥
भव भंजन गंजन संदेहा । जन रंजन सज्जन प्रिय एहा ॥ १ ॥

शम्भु-उमा का यह कल्याणकारी संवाद सुख उत्पन्न करने वाला और शोक का नाश करने वाला है । जन्म-मरण का अंत करने वाला, संदेहों का नाश करने वाला, भक्तों को आनंद देने वाला और संत पुरुषों को प्रिय है ॥ १ ॥

राम उपासक जे जग माहीं । एहि सम प्रिय तिन्ह कें कछु नाहीं ॥
रघुपति कृपाँ जथामति गावा । मैं यह पावन चरित सुहावा ॥ २ ॥

जगत् में जो (जितने भी) रामोपासक हैं, उनको तो इस रामकथा के समान कुछ भी प्रिय नहीं है । श्री रघुनाथजी की कृपा से मैंने यह सुंदर और पवित्र करने वाला चरित्र अपनी बुद्धि के अनुसार गाया है ॥ २ ॥

एहिं कलिकाल न साधन दूजा । जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा ॥
रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि । संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि ॥ ३ ॥

(तुलसीदासजी कहते हैं - ) इस कलिकाल में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत और पूजन आदि कोई दूसरा साधन नहीं है । बस, श्री रामजी का ही स्मरण करना, श्री रामजी का ही गुण गाना और निरंतर श्री रामजी के ही गुणसमूहों को सुनना चाहिए ॥ ३ ॥

जासु पतित पावन बड़ बाना । गावहिं कबि श्रुति संत पुराना ॥
ताहि भजहि मन तजि कुटिलाई । राम भजें गति केहिं नहिं पाई ॥ ४ ॥

पतितों को पवित्र करना जिनका महान् (प्रसिद्ध) बाना है, ऐसा कवि, वेद, संत और पुराण गाते हैं - रेमन! कुटिलता त्याग कर उन्हीं को भज । श्री राम को भजने से किसने परम गति नहीं पाई? ॥ ४ ॥

छंद :

पाई न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना ।
गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादि खल तारे घना ॥
आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे ।
कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते ॥ १ ॥

अरे मूर्ख मन! सुन, पतितों को भी पावन करने वाले श्री राम को भजकर किसने परमगति नहीं पाई? गणिका, अजामिल, व्याध, गीध, गज आदि बहुत से दुष्टों को उन्होंने तार दिया । आभीर, यवन, किरात, खस, श्वपच (चाण्डाल) आदि जो अत्यंत पाप रूप ही हैं, वे भी केवल एक बार जिनका नाम लेकर पवित्र हो जाते हैं, उन श्री रामजी को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥

रघुबंस भूषन चरित यह नर कहहिं सुनहिं जे गावहीं ।
कलि मल मनोमल धोइ बिनु श्रम राम धाम सिधावहीं ॥
सत पंच चौपाईं मनोहर जानि जो नर उर धरै ।
दारुन अबिद्या पंच जनित बिकार श्री रघुबर हरै ॥ २ ॥

जो मनुष्य रघुवंश के भूषण श्री रामजी का यह चरित्र कहते हैं, सुनते हैं और गाते हैं, वे कलियुग के पाप और मन के मल को धोकर बिना ही परिश्रम श्री रामजी के परम धाम को चले जाते हैं । (अधिक क्या) जो मनुष्य पाँच-सात चौपाइयों को भी मनोहर जानकर (अथवा रामायण की चौपाइयों को श्रेष्ठ पंच (कर्तव्याकर्तव्य का सच्चा निर्णायक) जानकर उनको हृदय में धारण कर लेता है, उसके भी पाँच प्रकार की अविद्याओं से उत्पन्न विकारों को श्री रामजी हरण कर लेते हैं, (अर्थात् सारे रामचरित्र की तो बात ही क्या है, जो पाँच-सात चौपाइयों को भी समझकर उनका अर्थ हृदय में धारण कर लेते हैं, उनके भी अविद्याजनित सारे क्लेश श्री रामचंद्रजी हर लेते हैं) ॥ २ ॥

सुंदर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो ।
सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को ॥
जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ ।
पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ ॥ ३ ॥

(परम) सुंदर, सुजान और कृपानिधान तथा जो अनाथों पर प्रेम करते हैं, ऐसे एक श्री रामचंद्रजी ही हैं । इनके समान निष्काम (निःस्वार्थ) हित करने वाला (सुहृद्) और मोक्ष देने वाला दूसरा कौन है? जिनकी लेशमात्र कृपा से मंदबुद्धि तुलसीदास ने भी परम शांति प्राप्त कर ली, उन श्री रामजी के समान प्रभु कहीं भी नहीं हैं ॥ ३ ॥

दोहा :

मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर ।
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर ॥ १३० क ॥

हे श्री रघुवीर! मेरे समान कोई दीन नहीं है और आपके समान कोई दीनों का हित करने वाला नहीं है । ऐसा विचार कर हे रघुवंशमणि! मेरे जन्म-मरण के भयानक दुःख का हरण कर लीजिए ॥ १३० (क) ॥

कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम ।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम ॥ १३० ख ॥

जैसे कामी को स्त्री प्रिय लगती है और लोभी को जैसे धन प्यारा लगता है, वैसे ही हे रघुनाथजी । हे रामजी! आप निरंतर मुझे प्रिय लगिए ॥ १३० (ख) ॥

श्लोक :

यत्पूर्वं प्रभुणा कृतं सुकविना श्रीशम्भुना दुर्गमं
श्रीमद्रामपदाब्जभक्तिमनिशं प्राप्तयै तु रामायणम् ।
मत्वा तद्रघुनाथनामनिरतं स्वान्तस्तमः शान्तये ।
भाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा मानसम् ॥ १ ॥

श्रेष्ठ कवि भगवान् श्री शंकरजी ने पहले जिस दुर्गम मानस-रामायण की, श्री रामजी के चरणकमलों में नित्य-निरंतर (अनन्य) भक्ति प्राप्त होने के लिए रचना की थी, उस मानस-रामायण को श्री रघुनाथजी के नाम में निरत मानकर अपने अंतःकरण के अंधकार को मिटाने के लिए तुलसीदास ने इस मानस के रूप में भाषाबद्ध किया ॥ १ ॥

पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं ।
मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम् ।
श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये
ते संसारपतंगघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः ॥ २ ॥

यह श्री रामचरित मानस पुण्य रूप, पापों का हरण करने वाला, सदा कल्याणकारी, विज्ञान और भक्ति को देने वाला, माया मोह और मल का नाश करने वाला, परम निर्मल प्रेम रूपी जल से परिपूर्ण तथा मंगलमय है । जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस मानसरोवर में गोता लगाते हैं, वे संसाररूपी सूर्य की अति प्रचण्ड किरणों से नहीं जलते ॥ २ ॥

मासपारायण, तीसवाँ विश्राम

नवाह्नपारायण, नवाँ विश्राम

इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने सप्तमः सोपानः समाप्तः ।

कलियुग के समस्त पापों का नाश करने वाले श्री रामचरित मानस का यह सातवाँ सोपान समाप्त हुआ ।