चौपाई :

दैहिक दैविक भौतिक तापा । राम राज नहिं काहुहि ब्यापा ॥
सब नर करहिं परस्पर प्रीती । चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती ॥ १ ॥

‘रामराज्य’ में दैहिक, दैविक और भौतिक ताप किसी को नहीं व्यापते । सब मनुष्य परस्पर प्रेम करते हैं और वेदों में बताई हुई नीति (मर्यादा) में तत्पर रहकर अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं ॥ १ ॥

चारिउ चरन धर्म जग माहीं । पूरि रहा सपनेहुँ अघ नाहीं ॥
राम भगति रत नर अरु नारी । सकल परम गति के अधिकारी ॥ २ ॥

धर्म अपने चारों चरणों (सत्य, शौच, दया और दान) से जगत् में परिपूर्ण हो रहा है, स्वप्न में भी कहीं पाप नहीं है । पुरुष और स्त्री सभी रामभक्ति के परायण हैं और सभी परम गति (मोक्ष) के अधिकारी हैं ॥ २ ॥

अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा । सब सुंदर सब बिरुज सरीरा ॥
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना । नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना ॥ ३ ॥

छोटी अवस्था में मृत्यु नहीं होती, न किसी को कोई पीड़ा होती है । सभी के शरीर सुंदर और निरोग हैं । न कोई दरिद्र है, न दुःखी है और न दीन ही है । न कोई मूर्ख है और न शुभ लक्षणों से हीन ही है ॥ ३ ॥

सब निर्दंभ धर्मरत पुनी । नर अरु नारि चतुर सब गुनी ॥
सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी । सब कृतग्य नहिं कपट सयानी ॥ ४ ॥

सभी दम्भरहित हैं, धर्मपरायण हैं और पुण्यात्मा हैं । पुरुष और स्त्री सभी चतुर और गुणवान् हैं । सभी गुणों का आदर करने वाले और पण्डित हैं तथा सभी ज्ञानी हैं । सभी कृतज्ञ (दूसरे के किए हुए उपकार को मानने वाले) हैं, कपट-चतुराई (धूर्तता) किसी में नहीं है ॥ ४ ॥

दोहा :

राम राज नभगेस सुनु सचराचर जग माहिं ।
काल कर्म सुभाव गुन कृत दुख काहुहि नाहिं ॥ २१ ॥

(काकभुशुण्डिजी कहते हैं - ) हे पक्षीराज गुरुड़जी! सुनिए । श्री राम के राज्य में जड़, चेतन सारे जगत् में काल, कर्म स्वभाव और गुणों से उत्पन्न हुए दुःख किसी को भी नहीं होते (अर्थात् इनके बंधन में कोई नहीं है) ॥ २१ ॥

चौपाई :

भूमि सप्त सागर मेखला । एक भूप रघुपति कोसला ॥
भुअन अनेक रोम प्रति जासू । यह प्रभुता कछु बहुत न तासू ॥ १ ॥

अयोध्या में श्री रघुनाथजी सात समुद्रों की मेखला (करधनी) वाली पृथ्वी के एक मात्र राजा हैं । जिनके एक-एक रोम में अनेकों ब्रह्मांड हैं, उनके लिए सात द्वीपों की यह प्रभुता कुछ अधिक नहीं है ॥ १ ॥

सो महिमा समुझत प्रभु केरी । यह बरनत हीनता घनेरी ॥
सोउ महिमा खगेस जिन्ह जानी ॥ फिरि एहिं चरित तिन्हहुँ रति मानी ॥ २ ॥

बल्कि प्रभु की उस महिमा को समझ लेने पर तो यह कहने में (कि वे सात समुद्रों से घिरी हुई सप्त द्वीपमयी पृथ्वी के एकच्छत्र सम्राट हैं) उनकी बड़ी हीनता होती है, परंतु हे गरुड़जी! जिन्होंने वह महिमा जान भी ली है, वे भी फिर इस लीला में बड़ा प्रेम मानते हैं ॥ २ ॥

सोउ जाने कर फल यह लीला । कहहिं महा मुनिबर दमसीला ॥
राम राज कर सुख संपदा । बरनि न सकइ फनीस सारदा ॥ ३ ॥

क्योंकि उस महिमा को भी जानने का फल यह लीला (इस लीला का अनुभव) ही है, इन्द्रियों का दमन करने वाले श्रेष्ठ महामुनि ऐसा कहते हैं । रामराज्य की सुख सम्पत्ति का वर्णन शेषजी और सरस्वतीजी भी नहीं कर सकते ॥ ३ ॥

सब उदार सब पर उपकारी । बिप्र चरन सेवक नर नारी ॥
एकनारि ब्रत रत सब झारी । ते मन बच क्रम पति हितकारी ॥ ४ ॥

सभी नर-नारी उदार हैं, सभी परोपकारी हैं और ब्राह्मणों के चरणों के सेवक हैं । सभी पुरुष मात्र एक पत्नीव्रती हैं । इसी प्रकार स्त्रियाँ भी मन, वचन और कर्म से पति का हित करने वाली हैं ॥ ४ ॥

दोहा :

दंड जतिन्ह कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज ।
जीतहु मनहि सुनिअ अस रामचंद्र कें राज ॥ २२ ॥

श्री रामचंद्रजी के राज्य में दण्ड केवल संन्यासियों के हाथों में है और भेद नाचने वालों के नृत्य समाज में है और ‘जीतो’ शब्द केवल मन के जीतने के लिए ही सुनाई पड़ता है (अर्थात् राजनीति में शत्रुओं को जीतने तथा चोर-डाकुओं आदि को दमन करने के लिए साम, दान, दण्ड और भेद- ये चार उपाय किए जाते हैं । रामराज्य में कोई शत्रु है ही नहीं, इसलिए ‘जीतो’ शब्द केवल मन के जीतने के लिए कहा जाता है । कोई अपराध करता ही नहीं, इसलिए दण्ड किसी को नहीं होता, दण्ड शब्द केवल संन्यासियों के हाथ में रहने वाले दण्ड के लिए ही रह गया है तथा सभी अनुकूल होने के कारण भेदनीति की आवश्यकता ही नहीं रह गई । भेद, शब्द केवल सुर-ताल के भेद के लिए ही कामों में आता है । ) ॥ २२ ॥

चौपाई :

फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन । रहहिं एक सँग गज पंचानन ॥
खग मृग सहज बयरु बिसराई । सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई ॥ १ ॥

वनों में वृक्ष सदा फूलते और फलते हैं । हाथी और सिंह (वैर भूलकर) एक साथ रहते हैं । पक्षी और पशु सभी ने स्वाभाविक वैर भुलाकर आपस में प्रेम बढ़ा लिया है ॥ १ ॥

कूजहिं खग मृग नाना बृंदा । अभय चरहिं बन करहिं अनंदा ॥
सीतल सुरभि पवन बह मंदा । गुंजत अलि लै चलि मकरंदा ॥ २ ॥

पक्षी कूजते (मीठी बोली बोलते) हैं, भाँति-भाँति के पशुओं के समूह वन में निर्भय विचरते और आनंद करते हैं । शीतल, मन्द, सुगंधित पवन चलता रहता है । भौंरे पुष्पों का रस लेकर चलते हुए गुंजार करते जाते हैं ॥ २ ॥

लता बिटप मागें मधु चवहीं । मनभावतो धेनु पय स्रवहीं ॥
ससि संपन्न सदा रह धरनी । त्रेताँ भइ कृतजुग कै करनी ॥ ३ ॥

बेलें और वृक्ष माँगने से ही मधु (मकरन्द) टपका देते हैं । गायें मनचाहा दूध देती हैं । धरती सदा खेती से भरी रहती है । त्रेता में सत्ययुग की करनी (स्थिति) हो गई ॥ ३ ॥

प्रगटीं गिरिन्ह बिबिधि मनि खानी । जगदातमा भूप जग जानी ॥
सरिता सकल बहहिं बर बारी । सीतल अमल स्वाद सुखकारी ॥ ४ ॥

समस्त जगत् के आत्मा भगवान् को जगत् का राजा जानकर पर्वतों ने अनेक प्रकार की मणियों की खानें प्रकट कर दीं । सब नदियाँ श्रेष्ठ, शीतल, निर्मल और सुखप्रद स्वादिष्ट जल बहाने लगीं ॥ । ४ ॥

सागर निज मरजादाँ रहहीं । डारहिं रत्न तटन्हि नर लहहीं ॥
सरसिज संकुल सकल तड़ागा । अति प्रसन्न दस दिसा बिभागा ॥ ५ ॥

समुद्र अपनी मर्यादा में रहते हैं । वे लहरों द्वारा किनारों पर रत्न डाल देते हैं, जिन्हें मनुष्य पा जाते हैं । सब तालाब कमलों से परिपूर्ण हैं । दसों दिशाओं के विभाग (अर्थात् सभी प्रदेश) अत्यंत प्रसन्न हैं ॥ ५ ॥

दोहा :

बिधु महि पूर मयूखन्हि रबि तप जेतनेहि काज ।
मागें बारिद देहिं जल रामचंद्र कें राज ॥ २३ ॥

श्री रामचंद्रजी के राज्य में चंद्रमा अपनी (अमृतमयी) किरणों से पृथ्वी को पूर्ण कर देते हैं । सूर्य उतना ही तपते हैं, जितने की आवश्यकता होती है और मेघ माँगने से (जब जहाँ जितना चाहिए उतना ही) जल देते हैं ॥ २३ ॥

चौपाई :

कोटिन्ह बाजिमेध प्रभु कीन्हे । दान अनेक द्विजन्ह कहँ दीन्हे ॥
श्रुति पथ पालक धर्म धुरंधर । गुनातीत अरु भोग पुरंदर ॥ १ ॥

प्रभु श्री रामजी ने करोड़ों अश्वमेध यज्ञ किए और ब्राह्मणों को अनेकों दान दिए । श्री रामचंद्रजी वेदमार्ग के पालने वाले, धर्म की धुरी को धारण करने वाले, (प्रकृतिजन्य सत्व, रज और तम) तीनों गुणों से अतीत और भोगों (ऐश्वर्य) में इन्द्र के समान हैं ॥ १ ॥

पति अनुकूल सदा रह सीता । सोभा खानि सुसील बिनीता ॥
जानति कृपासिंधु प्रभुताई ॥ सेवति चरन कमल मन लाई ॥ २ ॥

शोभा की खान, सुशील और विनम्र सीताजी सदा पति के अनुकूल रहती हैं । वे कृपासागर श्री रामजी की प्रभुता (महिमा) को जानती हैं और मन लगाकर उनके चरणकमलों की सेवा करती हैं ॥ २ ॥

जद्यपि गृहँ सेवक सेवकिनी । बिपुल सदा सेवा बिधि गुनी ॥
निज कर गृह परिचरजा करई । रामचंद्र आयसु अनुसरई ॥ ३ ॥

यद्यपि घर में बहुत से (अपार) दास और दासियाँ हैं और वे सभी सेवा की विधि में कुशल हैं, तथापि (स्वामी की सेवा का महत्व जानने वाली) श्री सीताजी घर की सब सेवा अपने ही हाथों से करती हैं और श्री रामचंद्रजी की आज्ञा का अनुसरण करती हैं ॥ ३ ॥

जेहि बिधि कृपासिंधु सुख मानइ । सोइ कर श्री सेवा बिधि जानइ ॥
कौसल्यादि सासु गृह माहीं । सेवइ सबन्हि मान मद नाहीं ॥ ४ ॥

कृपासागर श्री रामचंद्रजी जिस प्रकार से सुख मानते हैं, श्री जी वही करती हैं, क्योंकि वे सेवा की विधि को जानने वाली हैं । घर में कौसल्या आदि सभी सासुओं की सीताजी सेवा करती हैं, उन्हें किसी बात का अभिमान और मद नहीं है ॥ ४ ॥

उमा रमा ब्रह्मादि बंदिता । जगदंबा संततमनिंदिता ॥ ५ ॥

(शिवजी कहते हैं - ) हे उमा जगज्जननी रमा (सीताजी) ब्रह्मा आदि देवताओं से वंदित और सदा अनिंदित (सर्वगुण संपन्न) हैं ॥ ५ ॥

दोहा :

जासु कृपा कटाच्छु सुर चाहत चितव न सोइ ।
राम पदारबिंद रति करति सुभावहि खोइ ॥ २४ ॥

देवता जिनका कृपाकटाक्ष चाहते हैं, परंतु वे उनकी ओर देखती भी नहीं, वे ही लक्ष्मीजी (जानकीजी) अपने (महामहिम) स्वभाव को छोड़कर श्री रामचंद्रजी के चरणारविन्द में प्रीति करती हैं ॥ २४ ॥

चौपाई :

सेवहिं सानकूल सब भाई । राम चरन रति अति अधिकाई ॥
प्रभु मुख कमल बिलोकत रहहीं । कबहुँ कृपाल हमहि कछु कहहीं ॥ १ ॥

सब भाई अनुकूल रहकर उनकी सेवा करते हैं । श्री रामजी के चरणों में उनकी अत्यंत अधिक प्रीति है । वे सदा प्रभु का मुखारविन्द ही देखते रहते हैं कि कृपालु श्री रामजी कभी हमें कुछ सेवा करने को कहें ॥ १ ॥

राम करहिं भ्रातन्ह पर प्रीती । नाना भाँति सिखावहिं नीती ॥
हरषित रहहिं नगर के लोगा । करहिं सकल सुर दुर्लभ भोगा ॥ २ ॥

श्री रामचंद्रजी भी भाइयों पर प्रेम करते हैं और उन्हें नाना प्रकार की नीतियाँ सिखलाते हैं । नगर के लोग हर्षित रहते हैं और सब प्रकार के देवदुर्लभ (देवताओं को भी कठिनता से प्राप्त होने योग्य) भोग भोगते हैं ॥ २ ॥

अहनिसि बिधिहि मनावत रहहीं । श्री रघुबीर चरन रति चहहीं ॥
दुइ सुत सुंदर सीताँ जाए । लव कुस बेद पुरानन्ह गाए ॥ ३ ॥

वे दिन-रात ब्रह्माजी को मनाते रहते हैं और (उनसे) श्री रघुवीर के चरणों में प्रीति चाहते हैं । सीताजी के लव और कुश ये दो पुत्र उत्पन्न हुए, जिनका वेद-पुराणों ने वर्णन किया है ॥ ३ ॥

दोउ बिजई बिनई गुन मंदिर । हरि प्रतिबिंब मनहुँ अति सुंदर ॥
दुइ दुइ सुत सब भ्रातन्ह केरे । भए रूप गुन सील घनेरे ॥ ४ ॥

वे दोनों ही विजयी (विख्यात योद्धा), नम्र और गुणों के धाम हैं और अत्यंत सुंदर हैं, मानो श्री हरि के प्रतिबिम्ब ही हों । दो-दो पुत्र सभी भाइयों के हुए, जो बड़े ही सुंदर, गुणवान् और सुशील थे ॥ ४ ॥